सम्पादकीय

“जश्न या जनसंकट? रॉयल जीत के बाद भगदड़ में दबी इंसानियत की चीख”

विजय की कीमत: भीड़, भगदड़ और एक गंभीर सवाल

भारतीय प्रीमियर लीग (आई.पी.एल.) का इतिहास रोमांच, प्रतिस्पर्धा और जुनून से भरा रहा है। लेकिन इस वर्ष की समाप्ति

मनीश वर्मा, लेखक और विचारक

के बाद जो दुखद घटना घटित हुई, वह शायद इस भव्य प्रतियोगिता के इतिहास की सबसे पीड़ादायक स्मृतियों में दर्ज हो गई है। भगवान से करबद्ध प्रार्थना है कि आगे वो अपनी नजरें इनायत करें ताकि भविष्य में ऐसी त्रासदी न कभी इस मंच पर, न कहीं और हो।
घटना भले ही आईपीएल की समाप्ति के बाद की हो, पर इसके तार सीधे-सीधे इस लीग से ही जुड़े हैं। इस बार की विजेता टीम, रॉयल चैलेंजर्स बेंगलूरू (आरसीबी), जो वर्षों की प्रतीक्षा के बाद चैंपियन बनी, उसके सम्मान में आयोजित “विक्ट्री परेड” का आयोजन बेंगलुरू की सड़कों पर किया गया। इस परेड का मक़सद था—खिलाड़ियों को उनके चाहने वालों से मिलवाना, उनकी जीत का उत्सव साझा करना।
पर दुर्भाग्यवश, यह उत्सव मातम में बदल गया। भारी भीड़, अव्यवस्थित प्रशासन, और भावनाओं की बाढ़ ने ऐसी भगदड़ को जन्म दिया जिसमें कई निर्दोष लोगों की जानें चली गईं। कुछ ही पलों में खुशी का रंग रक्त की छींटों से मलिन हो गया।
भारत एक ऐसा देश है जहां क्रिकेट सिर्फ एक खेल नहीं, बल्कि एक धर्म है, और खिलाड़ी हमारे लिए देवताओं की तरह पूज्य हैं। ऐसे में जब कोई टीम जीतती है, तो वह केवल एक खेल की जीत नहीं होती, वह करोड़ों लोगों के सपनों की विजय होती है। पर सवाल यह उठता है—किस कीमत पर?
कोई सप्ताहांत नहीं था, कोई राष्ट्रीय अवकाश नहीं था, फिर भी लाखों की संख्या में लोग अपने चहेते खिलाड़िओं की केवल एक झलक पाने को उमड़ पड़े। अनुमान है कि तीन लाख से अधिक लोग वहां मौजूद थे। शहर के कोनों से लेकर दूर-दराज़ के गांवों से लोग आए होंगे। यह अपने आप में आश्चर्य नहीं, बल्कि एक गहरी सामाजिक मानसिकता का आईना है।
अब प्रश्न यह है कि इस त्रासदी का दोषी कौन है?
अक्सर हम प्रशासन को दोषी ठहरा देते हैं। यह आसान भी है—सरकार, पुलिस, नगर निगम—ये सभी हमारे गुस्से का पहला निशाना बनते हैं। पर क्या यही पूरा सच है? क्या हम, आम नागरिक, इस त्रासदी के अंशतः जिम्मेदार नहीं हैं?
हमारी जनसंख्या एक सर्वविदित वास्तविकता है, बेरोज़गारी एक कड़वी सच्चाई। जब लोगों के पास रचनात्मक विकल्प नहीं होते, जब खाली समय में भावनाओं का उबाल तर्क पर भारी पड़ता है, तब ऐसे हादसे टालना कठिन हो जाता है।
इस विक्ट्री परेड की भगदड़ कोई अकेली घटना नहीं है। हमने हाल में देखा कि किस तरह एक धार्मिक गुरु के दर्शन और उनके चरणों की धूल लेने के लिए उमड़ी भीड़ की वज़ह से हुई भगदड़ ने कई जानें ले लीं। महाकुंभ, मंदिरों में होने वाली भीड़, राजनीतिक रैलियाँ—हर जगह भीड़ की समस्या विकराल रूप धारण करती जा रही है। और हर बार हम किसी एक चेहरे पर दोष मढ़ कर अपने दायित्व से मुंह मोड़ लेते हैं। पर अब समय आ गया है कि हम आत्ममंथन करें। व्यवस्था से लेकर मानसिकता तक, सब कुछ पुनरावलोकन की मांग करता है।
हमें यह समझना होगा कि सिर्फ भीड़ जुटा लेना किसी आयोजन की सफलता नहीं होती। भीड़ को संभालना, सुरक्षित बनाना, और उससे जुड़ी ज़िम्मेदारियों को निभाना ही किसी भी समाज की परिपक्वता का प्रमाण होता है।
जब तक हम मिलकर इस समस्या के स्थायी समाधान की दिशा में नहीं सोचेंगे, तब तक ऐसी मौतें होती रहेंगी। और हम, जो रोज़ ‘एक और हादसा’ सुनने के आदि हो चले हैं, धीरे-धीरे संवेदनहीनता के उस बिंदु तक पहुंच जाएंगे जहां एक-दो जानों की खबर कोई फर्क नहीं डालेगी। शायद हम आदि हो चुके होंगे ऐसी ख़बरों की I
क्या हम वास्तव में ऐसे समाज की ओर बढ़ना चाहते हैं? यह समय केवल शोक मनाने का नहीं, आत्मचिंतन का है। आत्ममंथन और आत्मवलोकन का है , क्योंकि जीत का असली अर्थ तभी है जब हर कोई सुरक्षित और संपूर्ण रूप से उसका आनंद उठा सके। और अगर जीत के नाम पर जानें जाएँ, मौतें हों, तो उस विजय का क्या मूल्य?

मनीष वर्मा “मनु”

Leave a Reply