सम्पादकीय

गुरुपूर्णिमा के पावन अवसर पर आईए जानें शिष्य के जीवन में गुरु का महत्व

‘गुरु’ कौन हैं ?
जो शिष्य का अज्ञान नष्ट कर, उसकी आध्यात्मिक उन्नति हेतु जो साधना बताते हैं तथा उससे वह करवाते हैं एवं अनुभूति भी प्रदान करते हैं, उन्हें ‘गुरु’ कहते हैं । गुरु का ध्यान शिष्य के ऐहिक सुख की ओर नहीं होता (क्योंकि वह प्रारब्धानुसार होता है), केवल उसकी आध्यात्मिक उन्नति की ओर रहता है ।

वर्तमान जन्म में छोटी-छोटी बातों के लिए भी प्रत्येक व्यक्ति किसी अन्य से अर्थात शिक्षक, डॉक्टर, वकील इत्यादि से मार्गदर्शन लेता है । ऐसी स्थिति में जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति देनेवाले गुरु का महत्त्व कितना होगा, इसकी कल्पना कर पाना भी असंभव है ।

वास्तव में ईश्‍वर और गुरु में हम भेद ही नहीं कर सकते । ईश्‍वर निर्गुण रूप हैं, तो गुरु ईश्‍वर के सगुण रूप हैं । गुरु हमारा हाथ पकडकर हमसे प्रत्यक्ष साधना करवाकर लेते है । संत कबीर गुरु का महत्त्व बताते हुए कहते हैं,

गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागू पाय ।
बलिहारी गुरु आपनो, जिन गोविंद दियो बताय ॥

अर्थ : इस दोहे से तात्पर्य है कि गुरु और भगवान दोनों ही मेरे सम्मुख खडे हैं, परंतु ईश्‍वर ने गुरु को जानने का मार्ग दिखा दिया है ।
कहने का भाव यह है कि जब आपके समक्ष गुरु और ईश्‍वर दोनों विद्यमान हों, तो पहले गुरु के चरणों में अपना शीश झुकाना चाहिए, क्योंकि गुरु ने ही हमें भगवान के पास पहुंचने का ज्ञान प्रदान किया है ।

हमारे यहां कहा गया है,

गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णु गुरु देवो महेश्‍वर ।
गुरु साक्षात परम ब्रह्मा तस्मै श्री गुरुवे नमः ॥

इस श्‍लोक में गुरु की महिमा को मण्डित किया गया कि गुरु यदि मिल जाएं, तो जीवन में भगवान को पाना सरल हो जाता है और गुरु के रूप में साक्षात ईश्‍वर की प्राप्ति हो जाती है ।

श्री शंकराचार्यजीने कहा है, ‘ज्ञानदान करनेवाले सद्गुरु को जो शोभा दे, ऐसी उचित उपमा इस त्रिभुवन में कहीं भी नहीं है । यद्यपि उन्हें पारस की उपमा दी जाए, तो वह भी अपर्याप्त होगी; क्योंकि पारस लोहे को सुवर्णत्व तो दे सकता है; परंतु उसे पारसत्व नहीं दे सकता ।’ समर्थ रामदासस्वामीजी ने भी दासबोध में (दशक १, समास ४, पंक्ति १६ में) कहा है, पारस के स्पर्श से लोहा सोना बन जाता है; परंतु सोना अपने स्पर्श से लोहे को सोना नहीं बना सकता; परंतु गुरु शिष्य को ‘गुरुपद’ प्राप्त करवाते हैं । इसलिए पारस की उपमा भी गुरु के लिए अपर्याप्त है । इसलिए जीवन में गुरु का होना आवश्यक है ।

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्र्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्‍वरः ।

गुरुरेव परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ ३२ ॥

गुरु स्वयं ही ब्रह्मा, श्रीविष्णु तथा महेश्‍वर हैं । वे ही परब्रह्म हैं । ऐसे श्री गुरु को मैं नमस्कार करता हूं ।

शिष्य के जीवन में गुरु का महत्त्व क्या है ?

शिष्य के जीवन में गुरु का महत्त्व अनन्यसाधारण है !

ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः पूजामूलं गुरोः पदम् ।

मन्त्रमूलं गुरोवार्र्क्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा ॥ ८६ ॥

अर्थ : ध्यान का आश्रयस्थान गुरुमूर्ति है । पूजा का मूलस्थान गुरुचरण, मन्त्र का उगमस्थान गुरुवाक्य एवं मोक्ष का मूल आधार गुरु की कृपा है ।

श्री शंकराचार्यजी ने कहा है, ‘ज्ञानदान करनेवाले सद्गुरु को जो शोभा दे, ऐसी उचित उपमा इस त्रिभुवन में कहीं भी नहीं है । यद्यपि उन्हें पारस की उपमा दी जाए, तो वह भी अपर्याप्त होगी; क्योंकि पारस लोहे को सुवर्णत्व तो दे सकता है; परंतु उसे पारसत्व नहीं दे सकता ।’ समर्थ रामदासस्वामीजी ने भी दासबोध में (दशक १, समास ४, पंक्ति १६ में) कहा है, पारस के स्पर्श से लोहा सोना बन जाता है; परंतु सोना अपने स्पर्श से लोहे को सोना नहीं बना सकता; परंतु गुरु शिष्य को ‘गुरुपद’ प्राप्त करवाते हैं । इसलिए पारस की उपमा भी गुरु के लिए अपर्याप्त है ।

गुरु हमारे प्रारब्ध भोगने की क्षमता कैसे बढाते हैं ?

मंद प्रारब्ध भोगने की क्षमता मध्यम साधना से, मध्यम प्रारब्ध भोगने की क्षमता तीव्र साधना से तथा तीव्र प्रारब्ध भोगने की क्षमता केवल गुरुकृपा से प्राप्त होती है ।

गुरु का महत्त्व ज्ञात होने पर नर से नारायण बनने में अधिक समय नहीं लगता; क्योंकि गुरु देवता का प्रत्यक्ष सगुण रूप ही होते हैं, इसलिए जिसे गुरु स्वीकारते हैं उसे भगवान भी स्वीकारते हैं एवं उस जीव का अपनेआप ही कल्याण होता है ।

 

स्त्रोत : गुरुका महत्त्व, प्रकार एवं गुरुमंत्र

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