रक्षाबंधन- “रविवारीय” में आज पढ़िए, केवल धागा नहीं, रिश्तों की मिठास और अपनत्व का उत्सव
इस बार रक्षाबंधन का त्योहार शनिवार को पड़ा। हमारा दफ़्तर सप्ताह में पाँच दिन ही खुलता है, शनिवार और रविवार को अवकाश रहता है। जब सुना कि त्योहार छुट्टी वाले दिन पड़ रहा है,

तो मन में एक विचार आया-क्यों न इस बार अपनी बहन के पास चला जाए? वह कानपुर में रहती है और लखनऊ से महज़ सौ किलोमीटर की दूरी पर है। मौक़ा भी था और दस्तूर भी।
लखनऊ से कानपुर की दूरी ज़्यादा नहीं, लेकिन भावनाओं के लिहाज़ से यह सफ़र लंबा और खास था। सुबह-सुबह निकल पड़े। रास्ते भर एक अलग ही नज़ारा देखने को मिला—हर ओर महिलाएँ, चाहे साइकिल हो, स्कूटर, मोटरसाइकिल, कार या बस, अपने पति या किसी पुरुष रिश्तेदार के साथ, अपने भाइयों को राखी बाँधने निकल पड़ी थीं। उनके चेहरों पर उत्साह, आँखों में अपनापन और कदमों में एक विशेष तेज़ी थी।
इस बार उत्तर प्रदेश सरकार ने रक्षाबंधन के अवसर पर विशेष घोषणा की थी—महिलाओं के लिए, एक पुरुष सहयोगी सहित, राज्य परिवहन की बसों में दो दिनों तक निशुल्क यात्रा। शायद यह भी एक कारण था कि सड़कों पर बसें महिलाओं से भरी थीं और रास्ते में हर जगह त्योहार की रौनक बिखरी हुई थी। जगह-जगह अस्थायी स्टाल सजाकर राखियाँ और मिठाइयाँ बेची जा रही थीं। लाल, पीले, सुनहरे धागों से सजी राखियों में जैसे रिश्तों की गर्माहट पिरोई गई थी, और मिठाइयों की ख़ुशबू में अपनापन घुला हुआ था।
भारत सचमुच ऐसा देश है, जहाँ त्योहार केवल कैलेंडर की तारीख़ नहीं होते, बल्कि पूरे समाज की धड़कन बन जाते हैं। रक्षाबंधन तो खैर वैसे ही जाति और धर्म से परे एक त्योहार है । बहुत सारी कहानियाँ हैं इसके पीछे ।
आम दिनों में ढाई घंटे का यह सफ़र उस दिन साढ़े तीन घंटे में पूरा हुआ। लेकिन इस अतिरिक्त समय में भी एक अजीब-सी संतुष्टि थी, एक अलग ही उत्साह था – जैसे रास्ते में बिखरे दृश्यों ने मन में त्योहार की मिठास और बढ़ा दी हो।
कानपुर शहर में दाख़िल होते ही भीड़ का जो आलम था, वह देखने लायक था। गलियाँ, बाज़ार, सड़कों के किनारे—हर जगह लोगों का रेला था। नई-नई साड़ियाँ, सलवार-कुर्ते और चमचमाते गहनों में सजी धजी महिलाएँ अपने पतियों के साथ, थाली में राखी और मिठाई लेकर अपने भाइयों के घरों की ओर जा रही थीं। इस “आधी आबादी” का यह रूप कुछ अलग ही था—संस्कार, परंपरा और प्रेम से भरा हुआ।
रक्षाबंधन का यह दृश्य केवल एक त्योहार का उत्सव नहीं था, बल्कि यह हमारे समाज में रिश्तों की गहराई और उनकी जीवंतता का उत्सव था।
उस दिन वाक़ई मुझे महसूस हुआ कि रक्षाबंधन सिर्फ एक धागा बाँधने का नाम नहीं, बल्कि यह भावनाओं, परंपरा और अपनत्व का वह पुल है, जो हमें हर बार, हर साल, और मज़बूती से जोड़ देता है।
🖋️ मनीश वर्मा ‘ मनु ‘