सम्पादकीय

सोशल मीडिया की बहसबाज़ी बनाम असली कूटनीति, “रविवारीय” में आज पढ़िए “नेपाल से मिली सीख”

आज सोशल मीडिया ने हमारी ज़िंदगी का बड़ा हिस्सा घेर लिया है। यहाँ हर कोई अपनी राय बड़ी ही बेबाक़ी से रखता है और कई

मनीश वर्मा, लेखक और विचारक

मर्तबा तो ऐसा लगता है कि मानो सोशल मीडिया के मंच पर मौजूद लोग ही दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक और कूटनीतिक समस्याओं का हल जानते हों। छोटे-मोटे मुद्दों पर राय रखना और बहस करना स्वाभाविक है और उसका स्वागत भी होना चाहिए। पर जब विषय वैश्विक राजनीति या कूटनीति का हो तो यह देखना अचंभित करता है कि हमारे देश के वरिष्ठ और अनुभवी राजनीतिज्ञ, दशकों का अनुभव रखने वाले भारतीय विदेश सेवा के अधिकारी और राजनयिक सबके सब मानो सोशल मीडिया के स्वयंभू विशेषज्ञों के आगे फीके पड़ जाते हैं।

अक्सर हम देखते हैं – कोई कहता है कि फलाँ देश से संबंध तोड़ दो। तो किसी का कहना कि अमुक उत्पाद या ब्रांड का बहिष्कार कर दो। कोई तय करता है कि हमें किन देशों से दोस्ती निभानी चाहिए और किन्हें शत्रु मान लेना चाहिए।

पर विडंबना देखिए – यही लोग अगले ही दिन बहिष्कृत देश के किसी फास्ट-फूड चेन के बर्गर खाते मिलते हैं, और आई-फोन 17 के लाँचिंग पर अहले सुबह से ही एप्पल स्टोर के बाहर कतार में भी खड़े दिखाई पड़ते हैं।

तो सवाल अब यह उठता है कि हमारी इस बहसबाजी और विरोधाभासी रवैये के पीछे कौन-सी मानसिकता काम करती है? क्या हम सचमुच किसी गहरी समझ या अनुभव के आधार पर राय बना रहे हैं, या केवल भावनाओं और तात्कालिक उत्तेजना में बहकर निर्णय सुनाते हैं?

अंतरराष्ट्रीय संबंध और कूटनीति केवल भावनाओं पर नहीं, बल्कि ठोस अनुभव, धैर्य, समझदारी और दीर्घकालिक रणनीति पर आधारित होती है।

विदेश नीति तय करने में केवल “किससे दोस्ती करें और किससे दुश्मनी” नहीं देखा जाता, बल्कि भू-राजनीतिक स्थिति, आर्थिक हित, ऊर्जा सुरक्षा, रक्षा रणनीति और क्षेत्रीय संतुलन जैसे अनगिनत पहलुओं का विश्लेषण करना होता है।

सोशल मीडिया के प्रभाव का जीता जागता उदाहरण आज नेपाल बन चुका है। आज के जेनरेशन जेड पर यह किस कदर हावी हो गया है और इसका क्या परिणाम हो सकता है वह कोई नेपाल में देख ले। आज यह इतना सशक्त है कि सत्ता पलट कर दे। नेपाल से यह शुरुआत भी हो चुकी है।

आने वाले दिनों में सोशल मीडिया और अभी महत्वपूर्ण रोल अदा करनेवला है इसमें कोई दो राय नहीं है। लोगों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का यह तो पहले से ही साधन बना हुआ है परंतु यदि सामरिक और कूटनीतिक दृष्टि से देखा जाए तो चिंता इस बात की है कि कहीं यह बंदरों के हाथ में झुनझुना जैसा न बन के रह जाए।

अभी कुछ दिनों पहले की बात है नेपाल ने भारत के साथ सीमा विवाद से जुड़ा नक्शा जारी किया था, जिस पर सोशल मीडिया पर बवाल मच गया। हजारों लोग अचानक “नेपाल को सबक सिखाने” और “संबंध तोड़ने” जैसी मांग करने लगे। वहीं दूसरी ओर कुछ लोग भावनात्मक बहस में पड़कर नेपाल को “हमेशा का दुश्मन” घोषित करने लगे।

लेकिन हक़ीक़त यह है कि भारत और नेपाल के बीच संबंध केवल नक्शे या राजनीतिक बयानबाज़ी से तय नहीं होते। दोनों देशों के बीच सदियों पुराने सांस्कृतिक, धार्मिक, पारिवारिक और आर्थिक रिश्ते जुड़े हुए हैं। भारत-नेपाल की खुली सीमा पर रोज़ लाखों लोग आते-जाते हैं, व्यापार करते हैं, रोज़गार पाते हैं और पारिवारिक रिश्ते निभाते हैं। एक ही झटके में ऐसे गहरे रिश्तों को तोड़ देना न भारत के हित में है, न नेपाल के।

इसलिए भारत सरकार और उसके कूटनीतिक तंत्र ने इस मामले को सोशल मीडिया की उत्तेजना में बहकर नहीं, बल्कि संयम और संवाद से हल करने का प्रयास किया। यही कूटनीति है – जहाँ गुस्से या भावनाओं की बजाय धैर्य और रणनीति काम करती है।

एक छोटे से बयान या निर्णय से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बड़े परिणाम हो सकते हैं। यही कारण है कि कूटनीति में शब्दों का चयन भी बेहद सोच-समझकर किया जाता है। अगर सोशल मीडिया पर राय देकर ही विश्व राजनीति सुलझ सकती, तो दुनिया में कभी युद्ध नहीं होता, कभी सीमा विवाद नहीं होता और न ही महाशक्तियों के बीच टकराव।

सोशल मीडिया अभिव्यक्ति का एक लोकतांत्रिक मंच है और वहाँ विचार रखना हर किसी का अधिकार है। लेकिन जब विषय वैश्विक राजनीति और कूटनीति जैसा गंभीर हो, तो हमें यह याद रखना चाहिए कि केवल राय देने से समाधान नहीं निकलता। अनुभव, अध्ययन और वास्तविकता से टकराकर ही सही निर्णय लिए जाते हैं। नेपाल की घटना इसका ताज़ा उदाहरण है, जिसने यह दिखा दिया कि सोशल मीडिया की बहसें और नारेबाज़ी चाहे जितनी तेज़ क्यों न हों, पर वास्तविक कूटनीति ज़मीन पर ही होती है।

हालाँकि, वर्तमान में सोशल मीडिया व्यक्तिगत अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम बन चुका है । इस सच्चाई से आप आँखे नहीं चुरा सकते हैं । नेपाल की हालिया घटना ने यह संदेश पूरी ताक़त के साथ दिया है । जहाँ तक मैंने समझा है आज सोशल मीडिया ही नेपाल में हुईं घटनाओं और सत्ता परिवर्तन के लिए ज़िम्मेदार रही है। कल दो देश के बीच संबंधों में सुधार या दरार में उनकी भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है। आज इसी पहलू पर और भी ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है।

मनीष वर्मा “मनु”