सम्पादकीय

प्रतापगढ़ का पौराणिक अजगरा, यक्ष प्रश्न, “रविवारीय” में आज पढ़िए- युधिष्ठिर उत्तर और इतिहास का जीवंत साक्ष्य

🖋️ मनीश वर्मा ‘ मनु ‘
स्वतंत्र टिप्पणीकार और विचारक
अधिकारी, भारतीय राजस्व सेवा

किसी काम से उत्तेर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के एक गाँव में एक सामाजिक कार्यक्रम में जाने का कार्यक्रम था I असमंजस की स्थिति बनी हुई थी की जाया जाय या फिर मटिया दिया जाय I तभी अचानक से किसी ने बताया की जहाँ आपको जाना है वहां से

   मनीश वर्मा ‘ मनु ‘
स्वतंत्र टिप्पणीकार और विचारक
अधिकारी, भारतीय राजस्व सेवा

कुछ ही दुरी पर “अजगरा” नाम की एक जगह है , जहाँ पर यक्ष युधिष्ठिर संवाद हुआ था। अब मनु का मन अचानक से बदल जाता है और वो वहां जाने को उत्सुक हो उठता है I उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से लगभग 150 किलोमीटर की दुरी पर रायबरेली और प्रताप गढ़ के बीच में एक जगह पर है “अजगरा” I लखनऊ प्रयाग राष्ट्रीय राजमार्ग से रायबरेली के तुरंत बाद ही बायीं ओर एक रास्ता उतरता है जो ‘ सलोन ‘। स्थानीय भाषा में सलवन से होता हुआ लीलापुर थाना से थोड़ा आगे बढ़ने पर मुख्य रास्ते से थोडा हटते हुए एक रास्ता लगभग तीन से चार किलोमीटर गावों से होता हुआ “अजगरा” की ओर जाता है I मुख्य रास्ते पर ही जब आप लखनऊ से जायेंगे तो सड़क के दाहिनी ओर यक्ष युधिष्ठिर संवाद और अजगरा को इंगित करता हुआ एक नाम पट्टिका लगी हुई है I यहाँ पर आपको बिलकुल ही अहसास नहीं होगा की अब आप महाकाव्य महाभारत के एक प्रमुख खुले हुए पन्ने को आप रुबरु देखने जा रहे हैं I प्राचीन मान्यता है कि अगस्त्य ऋषि के श्राप से इन्द्रासन प्राप्त राजा नहुष अजगर सर्प होकर इसी स्थल पर गिरे थे तथा श्राप के अनुसार द्वापर युग के अन्तिम समय में वनवासी पाण्डवों में श्रेष्ठ युधिष्ठिर के दर्शन से उन्हें मोक्ष प्राप्त हुआ I उनके अजगर सर्प होने के कारण ही इस क्षेत्र का नाम अजगरा पड़ा I यह भी माना जाता है कि अज्ञातवास पर जाने के पूर्व वनवास के अन्तिम समय में पानी की खोज में निकले प्यासे पाण्डवों से यक्ष ने उन्हें इसी सरोवर के पास बिना प्रश्नों का उत्तर दिये, जल पीने व ले जाने से रोंका था I यहीं पर यक्ष युधिष्ठिर संवाद हुआ था।

यक्ष युधिष्ठिर संवाद महाभारत का एक प्रसिद्ध प्रसंग है जिसमें यक्ष ने पांडवों के वनवास के दौरान युधिष्ठिर से कई प्रश्न पूछे थे। युधिष्ठिर ने अपने ज्ञान और धर्मपरायणता से सभी प्रश्नों के सही उत्तर दिए, जिसके परिणामस्वरूप यक्ष ने प्रसन्न होकर उनके सभी भाइयों को जीवनदान दिया। यह संवाद ज्ञान, नैतिकता और धर्म के गहन सिद्धांतों को दर्शाता है। निष्पक्ष और न्यायप्रिय उत्तरों से प्रसन्न होकर, यक्ष ने युधिष्ठिर के मृत भाइयों को जीवनदान दिया। यक्ष ने अपने वास्तविक स्वरूप को प्रकट किया और युधिष्ठिर को बताया कि वह धर्मदेव हैं और उन्होंने युधिष्ठिर के ज्ञान का परीक्षण किया था।
माना गया है कि उसी प्राचीन सरोवर व वृक्ष के अवशेष आज भी यहाँ जीर्ण शीर्ण अवस्था में विद्यमान है। उक्त प्राचीन पेड़ हालाँकि चक्रवाती तूफान में गिरकर नष्ट हो गया। यक्ष-युधिष्ठिर संवाद ‌की घटना से जुड़े प्राचीन वृक्ष के अंश पूर्ण रूप से अब पत्थर का रूप ले चुके हैं। लकड़ी की तरह इनके ऊपरी भाग पर रेशों के निशान तथा भीतरी भाग पर पोल (सुराख) स्पष्ट है। इनका उपरी भाग उत्तर दिशा में तथा नीचे का भाग दक्षिण दिशा में है। लकड़ी के रूप में रहने पर हजारों वर्ष पूर्व इन्हें काटने का प्रयास किया गया होगा परन्तु दोनों तरफ से कुछ भाग काटकर छोड़ दिया गया जैसा कि पूर्व तरफ रखे गये बड़े वृक्ष जीवाश्म के दक्षिणी भाग को देखने से स्पष्ट है। इनके ऊपरी भाग को देखने पर इनके लकड़ी से परिवर्तित होकर पत्थर का रूप लेना पूर्णतया स्पष्ट हो जाता है। माना जाता है कि इस स्थल से खोजकर प्रकाश में लाया गया प्राचीन वृक्ष का यह अंश लगभग एक लारव वर्ष से अधिक पुराना है जो पत्थर बन चुका है।

अजगरा निवासी लोक प्रिय कवि व पुरातत्व खोजी पं. राजेश कुमार पाण्डेय उर्फ निर्झर प्रतापगढ़ी ने इस क्षेत्र से असंख्य ऐतिहासिक महत्व के पुरावशेषों को खोज कर यहीं पर ग्रामीण क्षेत्र में स्थापित भारत के पहले अशासकीय पुरातत्व एवं लोक कला संग्रहालय की भी स्थापना किया है। उक्त पौराणिक घटनाओं की स्मृति में यहाँ पर प्रतिवर्ष भादो माह के शुक्ल पक्ष की ऋषि पंचमी तिथि से तीन दिनों का विराट मेला भी प्राचीन काल से लगता चला आ रहा है। यह मेला अव महोत्सव का रूप चुका है। यहाँ प्राप्त द्वितीय से तृतीय सदी ईसा पूर्व के ब्राह्मी लिपी के प्रत्तर लेखों में भी इस सरोवर के जल को पापों से मुक्ति व मोक्ष दायक माना गया है। हालाँकि , अब यहाँ पर सरोवर नहीं दिखता पर जो दिखता है उससे बखूबी यह अनुमान लगाया जा सकता है की कभी वहां सरोवर रहा होगा , इस बात से कतई इंकार नहीं किया जा सकता है I मेले को महोत्सव का रूप देने के लिये निर्झर प्रतापगढ़ी के प्रार्थना पत्र पर विचार कर प्रतापगढ़ के तत्कालीन जिलाधिकारी व तत्कालीन क्षेत्रीय विधायक ने सहयोग कर इसे महोत्सव का रुप दिया। प्रख्यात इतिहासकर प्रो. एस. एन. राय पूर्व विभागाध्यक्ष प्राचीन भारतीय इतिहास,पुरातत्व एवं संस्कृति इलाहाबाद विश्व विद्यालय , प्रो. विमल चन्द्र शुक्ल, डीओ पी. लाल, डॉ. आर. एन. पाल. डॉ. बृजभान सिंह, प्रो. पीयुष कान्त शर्मा. डॉ. विमलेश कुमार पाण्डेय एवं कैम्ब्रिज विश्व विद्यालय लंदन के पुराविद् प्रो. एफ. आर. अल्चिन ने भी इन्हें प्रामाणिक माना है। पाण्डवों की इस घटना से जुड़े विश्व के ये पहले प्रस्तर लेख मिले है। यहाँ पर कई प्राचीन मंदिर व सिद्ध संतो की समाधियां भी स्थित हैं जो अत्यन्त चमत्कारी एवं मन वांछित फल दायी हैं।

प्रतापगढ़ वैसे तो कई कारणों से प्रसिद्ध है , पर मुख्य तौर पर यह शहर आंवले की नगरी के नाम से विख्यात है I आज़ादी के बाद हुए लोकसभा चुनाव में तब के परिसीमन के अनुसार हमारे देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु जी ने फूलपुर लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा था जो तब के प्रतापगढ का ही हिस्सा था ।यहाँ की धरती इस कारण से भी प्रसिद्ध है की यह मशहूर कवि और लेखक हरिवंश राय बच्चन जी की जन्मस्थली है I

Leave a Reply