इतिहास की परतों में छुपी स्त्री, संस्कृति और सभ्यता का पुनर्पाठ
राखीगढ़ी: भारत की स्त्री-केंद्रित सभ्यता की झलक
हरियाणा स्थित राखीगढ़ी हड़प्पा सभ्यता का सबसे बड़ा स्थल है, जहाँ से मिले 4600 साल पुराने महिला कंकाल, शंख की चूड़ियाँ

और ताम्र नृत्यांगना की प्रतिमा सभ्यता में स्त्री की केंद्रीय भूमिका को रेखांकित करते हैं। डीएनए विश्लेषण ने ‘आर्य आक्रमण सिद्धांत’ पर सवाल उठाए हैं और भारत की सांस्कृतिक निरंतरता को सिद्ध किया है। राखीगढ़ी अब केवल एक पुरातात्विक खोज नहीं, बल्कि भारत के अतीत की आत्मा से संवाद का जीवंत माध्यम है।
✍️ प्रियंका सौरभ
हरियाणा के हिसार जिले का एक सामान्य-सा गांव राखीगढ़ी, अब वैश्विक पुरातात्विक विमर्शों का केंद्र बन चुका है। 1997-99 के दौरान हुए उत्खननों ने इसे हड़प्पा सभ्यता के सबसे बड़े स्थलों में गिना जाना शुरू किया, और 2012 में विश्व विरासत कोष की ‘खतरे में पड़ी धरोहरों’ की सूची में इसकी उपस्थिति ने वैश्विक ध्यान खींचा। परन्तु इसके बाद जो मिला – एक महिला का 4600 वर्ष पुराना कंकाल, उसके बाएं हाथ की शंख की चूड़ियाँ, और ताम्र की बनी एक नृत्यांगना प्रतिमा – उन सभी ने इतिहास और पुरातत्व के स्थापित आख्यानों को चुनौती देना शुरू कर दिया।
राखीगढ़ी से मिला स्त्री कंकाल सिर्फ एक पुरातात्विक खोज नहीं है, यह उन असंख्य ‘मौन स्त्रियों’ की प्रतीकात्मक उपस्थिति है जिन्हें सभ्यता की कहानी से सदा बाहर रखा गया। यह कंकाल लगभग 4600 वर्ष पुराना है, और अद्भुत रूप से संरक्षित अवस्था में मिला। उसकी बाईं कलाई पर शंख की चूड़ियाँ मिलीं – यह उस समय के सामाजिक-सांस्कृतिक प्रतीकों की ओर संकेत करती हैं। डीएनए विश्लेषण से यह पता चला कि इस महिला के आनुवंशिक संबंध प्राचीन ईरानियों और दक्षिण-पूर्व एशियाई शिकारी-संग्राहकों से तो हैं, लेकिन स्टेपी चरवाहों से कोई संबंध नहीं मिला – जिनसे अक्सर भारत में आर्यों के आगमन को जोड़ा जाता है। यह निष्कर्ष ‘आर्य आक्रमण सिद्धांत’ को एक बड़ा झटका देता है और यह संकेत देता है कि भारतीय उपमहाद्वीप में सांस्कृतिक विकास अपनी निरंतरता में हुआ।
मोहेंजोदाड़ो की विश्वप्रसिद्ध कांस्य नर्तकी की तरह, राखीगढ़ी से भी एक ताम्र प्रतिमा मिली है जिसे “डांसिंग गर्ल” कहा जा रहा है। यह मूर्ति न केवल सौंदर्यबोध और कलात्मकता का प्रमाण है, बल्कि यह भी दर्शाती है कि उस काल में नारी की उपस्थिति सांस्कृतिक और सार्वजनिक जीवन में कितनी सशक्त रही होगी। यह मान्यता को चुनौती देती है कि प्राचीन सभ्यताओं में स्त्रियां केवल घरेलू क्षेत्र में सीमित थीं।
कंकाल मिलने के स्थल पर अग्निवेदिकाओं के अवशेष भी मिले हैं, जो यह संकेत करते हैं कि शवदाह की परंपरा उस समय भी प्रचलित थी। अग्नि, जिसे वैदिक परंपरा में शुद्धिकरण और संस्कार का प्रतीक माना गया है, उसका हड़प्पा काल में इतना महत्वपूर्ण स्थान होना यह दर्शाता है कि वैदिक और हड़प्पा परंपराएं एक-दूसरे से पूर्णतः असंबंधित नहीं थीं।
कुछ विद्वान मानते हैं कि महाभारत युद्ध लगभग 5000-5500 वर्ष पूर्व हुआ था। यदि यह मान लिया जाए, तो राखीगढ़ी की स्थापना इस युद्ध से पहले की मानी जा सकती है। एक किंवदंती यह भी है कि महाभारत युद्ध में वीरगति को प्राप्त सैनिकों की विधवाएं यहीं शरण लेने आई थीं, और यही से इस स्थान का नाम ‘राखीगढ़ी’ पड़ा – ‘राख’ यानी मृत्यु की राख, और ‘गढ़ी’ यानी शरण। ऐसी मिथकीय व्याख्याएं ऐतिहासिक सत्य नहीं हैं, परंतु वे यह दर्शाती हैं कि स्थानीय जनमानस में राखीगढ़ी की सांस्कृतिक स्मृति कितनी गहरी है।
राखीगढ़ी से मिले महिला कंकाल का जीनोमिक विश्लेषण केवल पुरातत्व नहीं, बल्कि भारतीय इतिहास-लेखन में एक बड़ा मोड़ है। स्टेपी डीएनए की अनुपस्थिति सीधे उस विचारधारा को चुनौती देती है जिसने लंबे समय तक ‘आर्य आक्रमण’ को भारत में सभ्यता के आगमन का कारण बताया। इस अध्ययन ने इतिहास, नृविज्ञान और भाषाविज्ञान के विशेषज्ञों को एक बार फिर यह सोचने पर विवश किया है कि क्या आर्य बाहर से आए थे या यहीं के थे? क्या वैदिक संस्कृति और हड़प्पा संस्कृति में कोई ‘टकराव’ नहीं बल्कि एक सांस्कृतिक प्रवाह था?
राखीगढ़ी की खोजों के परिणाम अब एनसीईआरटी जैसे शैक्षिक निकायों के पाठ्यक्रम में भी दिखाई दे रहे हैं। हड़प्पा सभ्यता को अब केवल एक ‘अतीत’ नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति की निरंतरता के रूप में पढ़ाया जा रहा है। संस्कृत भाषा की उत्पत्ति, द्रविड़ भाषाओं के विकास और हड़प्पावासियों की भाषा पर भी अब नए सिरे से अध्ययन हो रहे हैं। यह केवल पुरातत्व नहीं, राष्ट्र की आत्मा की खोज है।
2012 में वर्ल्ड मॉन्यूमेंट फंड ने राखीगढ़ी को एशिया के उन 10 धरोहर स्थलों में शामिल किया जो विनाश के कगार पर हैं। अफगानिस्तान का मेस आयनाक, चीन का काशगर और थाईलैंड का अयुथ्या भी इस सूची में शामिल हैं। भारत में अक्सर पुरातत्व स्थलों को विकास के नाम पर या अनदेखी की वजह से नुकसान पहुंचता है। राखीगढ़ी का भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि हम इसे पर्यटन केंद्र मात्र बनाना चाहते हैं या जीवित शोध प्रयोगशाला।
राखीगढ़ी की महिला चुप है, पर उसकी चूड़ियाँ बोलती हैं। उसका सिर उत्तर की ओर है – शायद भविष्य की ओर, या शायद प्रश्न की ओर। ‘डांसिंग गर्ल’ स्थिर है, फिर भी आंदोलित करती है। यह स्थल अब सिर्फ पुरातत्व नहीं, राजनीति, शिक्षा, संस्कृति और अस्मिता की बहस का हिस्सा बन चुका है।
यह सवाल केवल अतीत को जानने का नहीं है, यह तय करने का भी है कि हम किस अतीत को स्वीकार करते हैं – लादे गए इतिहास को या खोजे गए इतिहास को?राखीगढ़ी केवल मिट्टी में दबा कोई पुराना नगर नहीं, बल्कि हमारी सभ्यता की उस जड़ का नाम है जिसे सदियों से अनदेखा किया गया। यहाँ से मिली महिला की चूड़ियाँ, नृत्यांगना की प्रतिमा और अग्निवेदियाँ हमें यह बताती हैं कि हड़प्पा काल कोई पुरुष-प्रधान, युद्ध-केंद्रित समाज नहीं था—यह एक सांस्कृतिक, स्त्री-केंद्रित और समृद्ध सभ्यता थी। डीएनए विश्लेषणों ने न केवल आर्य आक्रमण सिद्धांत की पुनर्व्याख्या की है, बल्कि भारत के भीतर एक जैविक-सांस्कृतिक निरंतरता की पुष्टि भी की है।
राखीगढ़ी हमारे अतीत की वह भूली हुई स्त्रीगाथा है, जिसे अब इतिहास की मुख्यधारा में स्थान मिलना चाहिए—सम्मान के साथ, वैज्ञानिक दृष्टिकोण से।
प्रियंका सौरभ
रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,
कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,
(आलेख मे व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं।)