जाति समीकरणों से ऊपर उठा बिहार, “रविवारीय” में आज पढ़िए- व्यावहारिक वोटिंग ने लिखी नए दौर की कहानी
लोकतंत्र और बिहार

इस बार के बिहार विधानसभा चुनाव में बिहार के लोगों ने अपनी रायशुमारी ज़ोरदार ढंग से जाहिर कर दी है। डंके की चोट पर, बता दिया है कि वे आखिर चाहते क्या हैं। अब इसमें कोई किन्तु-परंतु नहीं , किसी तरह का शक सुबहा नहीं। लगभग एक वर्ष से पूरे बिहार में एक मंथन सा चल रहा था—बिहार का क्या होगा ? हर कोई यह जानना चाहता था कि आखिर ऊंट किस करवट बैठेगा। पर अब तो ऊंट सिर्फ बैठ ही नहीं गया है , वो तो अब पसर भी गया है।
जिनका बिहार से लेना–देना है, उनका तो उत्सुक होना यहां के बारे में जानकारी रखना स्वाभाविक है। पर आश्चर्य तो उन लोगों पर होता है जो वर्षों पहले बिहार छोड़ चुके हैं, जिनकी आने वाली पीढ़ियों की तमाम उपलब्धियाँ बिहार से बाहर की हैं—वे भी बिहार चुनाव में असाधारण रुचि दिखा रहे थे।
इसमें कोई संदेह नहीं कि जातिवाद यहां के मिट्टी में पुरी तरह रचा बसा हुआ है। पर यह कहाँ नहीं है ? कोई हमें बताए तो सही। जातिवाद रूपी दैत्य पूरे देश में किसी न किसी रूप में मौजूद है। दरअसल बात यह है कि यहां के लोग इमोशनल होते हैं इसलिए भी उनकी संबद्धता कहीं ना कहीं जातियों और संबंधों से गहरे जुड़ी होती है। पर, इस बार यहां के लोगों ने तो अपना हित देखा, आने वाली पीढ़ियों के बारे में सोचा और बड़े ही व्यावहारिक तरीके से मतदान किया। जातियां कम से कम इस चुनाव में टूटती नज़र आईं। लोगों ने कुछ जगहों पर स्थापित लोगों को छोड़ नए चेहरों पर अपना विश्वास जताया। कुछेक अपवाद हो सकते हैं। शत प्रतिशत तो कुछ भी नहीं होता है।
पर,इस बार तो बिहार ने पुरे देश को बता दिया—बल्कि पूरे ताल ठोक कर बताया—कि लोकतंत्र में सबसे महत्वपूर्ण लोग हैं। अगर ऐसा न हो, तो लोकतंत्र का अस्तित्व ही अर्थहीन हो जाए।
सुखद बात यह रही कि इस चुनाव में फैली सारी आशंकाएँ निर्मूल साबित हुईं। अव्यावहारिक लुभावने वायदे को दरकिनार कर उनका मतदान करना इस बात का द्योतक है कि लुभावने वायदे और नारों से उन्हें अब छला नहीं जा सकता है।
सोशल मीडिया पर चुनाव नहीं लड़े जाते। चुनाव एक जमीनी हकीकत है। जितना आप लोगों से जुड़ेंगे, सफलता की संभावना उतनी ही बढ़ेगी। यह बात शायद बाहर वाले न समझ पाएँ। उनके लिए बिहार एक अति पिछड़ा प्रदेश, और “बिहारी” एक तिरस्कृत शब्द भर है।
पर वे भूल जाते हैं—बिहार वह धरती है जिसने हमेशा नाख़ुदा की भूमिका निभाई है।
इस बार फिर बिहार ने दिखा दिया कि चाहे तो वह बहुत कुछ कर सकता है।
एक छोटी-सी बात—बिहार हर साल बाढ़ की विभीषिका झेलता है, फिर भी उफ्फ तक नहीं करता। नियति मानकर आगे बढ़ जाता है। इसके विपरीत वे प्रदेश हैं जहाँ कभी-कभार बाढ़ आती है और वे रो-रोकर पूरी कायनात को अपनी कहानी सुनाते फिरते हैं। बिहार को वही लोग कभी नहीं समझ पाएँगे जिन्होंने इसे नजदीक से देखा ही नहीं। सुनी-सुनाई बातों पर अपनी राय बना लेते हैं, और वर्षो तक उसी पर अड़े रहते हैं। मेरी गुज़ारिश है उनसे एक बार तो आइए बिहार में और समय बिताइए बिहार और बिहारियों के साथ।
कुछ दलों—या कहें—कुछ लोगों का एक बार फिर हाशिए पर चले जाना भी इस बात का संकेत है कि चुनाव धरती पर उतरकर, लोगों के बीच जाकर ही लड़े जाते हैं। नेतृत्व थोपना संभव नहीं। देर-सवेर जब भी हकीकत लोगों को समझ आती है, निशाना वही बनता है जो ज़मीन से कट चुका होता है।
आखिर क्यों हमारे देश का शीर्ष नेतृत्व रात-दिन एक करके लोगों के बीच जाकर अपनी बात कह रहा था? क्यों स्थानीय स्तर पर बिहार के नेता मौसम की कठिनाइयों के बावजूद गाँव-गाँव, घर-घर पहुँच रहे थे?
क्योंकि यही चुनाव की सच्चाई है।
हताशा में कई लोग बहुत कुछ कह रहे हैं, पर वे हकीकत से नज़रें चुरा रहे हैं। सच्चाई तो सामने है—जनमत को स्वीकार करें। उनके निर्णय को सिर आँखों पर रखकर बिहार और बिहारियों के सम्मान के लिए काम करें।
अब बस कुछ देर की बात है। नई सरकार बनने जा रही है। जिन्हें बिहार ने एकतरफा बहुमत दिया है, शायद उन्हें खुद भी इसकी उम्मीद न रही हो। बिहार ने जो कर दिखाया, अब उससे कहीं आगे बढ़कर दिखाने की ज़िम्मेदारी उनकी है।
बिहार को उम्मीद है।
आज से ही शुरुआत हो—बिहारी और बिहार के प्रति बाहर की धारणा को बदलने की।
पूरी आशा है कि आने वाले पाँच साल बिहार और बिहारियों के लिए एक मील का पत्थर साबित होंगे। जिस प्रकार से बिहारियों ने आपको आपकी उम्मीद से परे बहुमत दिया है आप भी उन्हें उनकी उम्मीद से परे एक खुशहाल बिहार दें।
