सम्पादकीय

रिश्तों की टूटती डोर, “रविवारीय” में आज पढ़िए संवेदनाओं का संकट और सामाजिक विघटन

अभी अचानक से ऐसा महसूस होने लगा है कि हम एक भीषण संक्रमण काल से गुजर रहे हैं। कुछ भी स्थिर नहीं है। चारों ओर

मनीश वर्मा, लेखक और विचारक

अजीब सी उथल-पुथल मची हुई है — जैसे धरती अपनी धुरी से हिल गई हो।
संवेदनाएं बड़ी प्रबल वेग से हिलोरें मार रही हैं। मन काफी खिन्न और अशांत हो चला है।आज इसी अशांत मन से विवाह नामक संस्था की बात करते हैं।
जी हां, विवाह — केवल एक सामाजिक अनुबंध नहीं, बल्कि एक सदियों पुरानी संस्था है। एक ऐसा बंधन, जिसकी पवित्रता को बचाए रखने के लिए न जाने कितनी पीढ़ियाँ अपनी पूरी ज़िंदगी समर्पित कर चुकी हैं।
विवाह दो शरीरों का मिलन मात्र नहीं है, यह दो आत्माओं का, दो परिवारों का, दो संस्कृतियों का मिलन है। यह विश्वास की नींव पर खड़ी एक अदृश्य इमारत है।
परंतु आज… शायद यह संस्था अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है।
जिस परस्पर विश्वास पर यह टिकी थी, वह विश्वास अब दरक चुका है।
कभी हम संयुक्त परिवारों में रहते थे — सीमित संसाधनों के बावजूद मर्यादा और अनुशासन की दीवारें इतनी मजबूत थीं कि संबंधों की गरिमा अक्षुण्ण रहती थी। समयाभाव था, पर संवेदनाओं का अभाव नहीं था।
कभी एक खत, एक तस्वीर, एक स्मृति — जीवन भर की पूंजी बन जाती थी।
आज कहां खो गया वह निश्छल प्रेम ?
कहां विलीन हो गई वह पवित्रता, वह आत्मीयता ?

आज तो जैसे इंसानियत ही दम तोड़ चुकी है।
हमने खुद को सिर्फ ‘पुरुष’ और ‘महिला’ के सांचों में सीमित कर दिया है।
रिश्ते अब केवल सौदे बनकर रह गए हैं — भावनाओं का कोई मूल्य नहीं, मर्यादाओं का कोई मान नहीं।
जो बातें कभी स्वप्न में भी अकल्पनीय थीं, वे आज निर्विकार रूप से हमारे सामने घट रही हैं।
रिश्ते तार-तार हो रहे हैं। विश्वास का कोई नामोनिशान नहीं बचा।

कहीं सास अपने ही दामाद को अपना जीवनसाथी मान बैठी है, तो कहीं मामी अपने भांजे के साथ घर बसाने को आतुर है।
कहीं मुस्कान ने अपने इतर संबंधों की आग में साहिल की ज़िंदगी को भस्म कर डाला।
कहीं किसी ने, विश्वास में लेकर, उस साथी को — जिसके साथ सात फेरे लेकर जीने-मरने की कसमें खाई थीं — धोखे से मौत की नींद सुला दिया।
अख़बार के पूरे पन्ने इसी तरह की ख़बरों से पटे पड़े रहते हैं।

कुछ वर्षों पहले तक जब ‘तलाक’ शब्द सुनते थे, तो लगता था कि यह शब्द हमसे बहुत दूर है — केवल गिने-चुने लोगों के लिए बना है।
पर आज… यह शब्द हमारे समाज में बड़ी तेजी से घर कर गया है।
बिना झिझक, बिना पछतावे के, संबंधों की डोर को तोड़ दिया जाता है — मानो कोई बोझ हल्का किया जा रहा हो।

हे प्रभु!
क्या यही वह समाज है जिसकी कल्पना हमारे पूर्वजों ने की थी ?
क्या यही वह मानवता है जिस पर हम गर्व करते थे ? कभी हमें हमारे संबंधों और रिश्तों पर अभेद्य विश्वास था, पर अफ़सोस वो विश्वास धीरे धीरे टूट की ओर अग्रसर है।
हे प्रभु! इन्हें सद्बुद्धि दो। इन्हें समझ दो कि संबंधों की कीमत क्या होती है।
उन्हें यह अहसास हो कि विवाह कोई बंधन नहीं, एक तपस्या है।
एक व्रत है, जो आजीवन निभाया जाता है।

हम तो जैसे थक चुके हैं।
पर हमारी आँखें अभी तलक उम्मीदों से भरी हैं — कि कहीं से कोई उजाला फूटे, कहीं से कोई नया विश्वास जन्म ले।
लेकिन इस अंधकार में भी एक प्रार्थना बची है —
“हे जीवनदाता! इन भटके हुए पथिकों को सही राह दिखा , ये नहीं जानते ये क्या कर रहे हैं ”
✒️ मनीश वर्मा’मनु’