कलम की बेटियाँ
वे जब चलीं तो हाथ में कलम थी,
पर राह में कांटे, पत्थर, हर कदम थी।

सच की तलाश में निकलीं जो बेटियाँ,
हर मोड़ पे उनसे भिड़ीं व्यवस्थाएँ खामोशियाँ।
न आँखें झुकीं, न स्वर रुके,
अभिमान से बोले अक्षर चटके।
“मैं बिकाऊ नहीं, मैं डरी नहीं,
सत्ता की दहाड़ से झुकी नहीं।”
लहू में स्याही घोल चलीं,
हर झूठी चुप्पी को तोल चलीं।
जिन्हें कहा गया ‘कमज़ोर कलम’,
उन्होंने रचा जन-जागरण का धर्म।
ऑनलाइन गालियाँ, ट्रोल की मार,
फिर भी न बदली उन्होंने विचार।
हर धौंस, धमकी, और घात के पार,
वे लिखती रहीं—सच का सार।
गौरी की गोली चुप न कर पाई,
राणा की स्याही सूख न पाई।
हर आवाज़ जो कुचली गई,
वो अगली कलम में उभरी नई।
सुन लो सत्ता, सुनो समाज,
यह चुप्पी नहीं, क्रांति का आगाज।
कलम की बेटियाँ झुकेंगी नहीं,
अब स्याही से इतिहास लिखेंगी वही।
प्रियंका सौरभ
रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,
कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,