“इतिहास के नाम एक शोकगीत, “रविवारीय” में आज पढ़िए खगौल में ज़मींदोज़ हुआ एन सी घोष इंस्टीट्यूट”
दानापुर – एन सी घोष इंस्टिट्यूट
दानापुर—जो प्राचीन काल में दीनापुर के नाम से जाना जाता था—बिहार की राजधानी पटना से सटा हुआ एक ऐतिहासिक और

सांस्कृतिक रूप से समृद्ध क़स्बाई शहर है। गंगा नदी के किनारे बसा यह छोटा सा कस्बाई शहर न केवल अपनी भौगोलिक महत्ता के लिए जाना जाता है, बल्कि यह भारत के वैदिक और मौर्यकालीन इतिहास से भी गहराई से जुड़ा हुआ है। ऐसा माना जाता है कि गणित और खगोलशास्त्र के अद्वितीय विद्वान आर्यभट्ट और मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त के महामंत्री तथा अर्थशास्त्र के जनक कौटिल्य (चाणक्य) की गतिविधियों का क्षेत्र भी यही भूभाग रहा है। जैसे ही दानापुर स्टेशन से आप बाहर निकलते हैं और आपका सामना सबसे पहले जिस जगह से होता है वो प्रसिद्ध खगोलशास्त्री आर्यभट्ट की प्रतिमा से होता है । यहाँ पर ही चाणक्य का टीला भी है जिसका नाम अर्थशास्त्र के जनक माने जाने वाले कौटिल्य ( चाणक्य ) से जुड़ा हुआ है ।
दानापुर ब्रिटिश काल में भी एक महत्त्वपूर्ण सैन्य छावनी (cantonment) के रूप में उभरा, जो आज भी सेना की उपस्थिति के कारण अपनी विशिष्ट पहचान रखता है। यहाँ की गलियों, पुराने मकानों और धार्मिक स्थलों में आज भी इतिहास की गूंज सुनाई देती है। आधुनिकता की दस्तक के बावजूद, दानापुर में उस पारंपरिक जीवनशैली की झलक मिलती है, जो इसकी आत्मा में रची-बसी है।
जैसा की मैंने पहले ही आपको बताया कि दानापुर अपने आप में ही इतिहास है । इसकी एक बानगी आज देखते हैं । इसी दानापुर शहर में स्थित एन सी घोष सामुदायिक भवन आज एक चौराहे पर खड़ा है—जहाँ अतीत की गरिमा और वर्तमान की प्राथमिकताओं के बीच एक स्पष्ट टकराव दिखाई देता है। कभी “एन सी घोष इंस्टीट्यूट” के नाम से जाना जाने वाला यह भवन, सिर्फ एक ईमारत नहीं, बल्कि एक जीवित सांस्कृतिक परंपरा का केंद्र रहा है। लेकिन कुछ वर्षों पहले इसे सामुदायिक भवन में बदल देने के निर्णय ने न केवल स्थानीय नागरिकों को चिंतित किया था ,बल्कि यह प्रश्न भी खड़ा किया था —क्या हम अपनी सांस्कृतिक विरासत के प्रति सचेत और सजग हैं I
एन सी घोष इंस्टीट्यूट की स्थापना ब्रिटिश काल में रेलवे प्रशासन द्वारा की गई थी। उस दौर में रेलवे कॉलोनियाँ महज़ आवासीय परिसर नहीं थीं, बल्कि वहाँ सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन को सुव्यवस्थित रखने के लिए विशेष संस्थान बनाए जाते थे। एन सी घोष भवन भी इसी सोच की उपज था—जहाँ रेलवे कर्मचारी और उनके परिवार नाटक, संगीत, पेंटिंग, और साहित्य से जुड़ी गतिविधियों में भाग लेते थे।
विशेष रूप से खगौल और दानापुर में रहने वाले एंग्लो-इंडियन समुदाय के लिए यह भवन केवल एक सांस्कृतिक स्थल नहीं था, बल्कि सामूहिक पहचान और सहभागिता का एक प्रतीक था। क्रिसमस के अवसर पर यहाँ आयोजित सप्ताह भर के उत्सव—जिनमें बॉल डांस, कैरोल गायन, सांता क्लॉज़ की परेड और सामुदायिक भोज शामिल होते थे—ने क्षेत्र को बहुधर्मी समावेशिता का अद्भुत उदाहरण बना दिया।
रेलवे प्रशासन द्वारा इस भवन को “सामुदायिक भवन” में बदलने का निर्णय तकनीकी दृष्टि से भले ही व्यावहारिक लगे, पर सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर यह एक विघटनकारी निर्णय सिद्ध हुआ। स्थानीय कलाकारों, रंगकर्मियों, खेलप्रेमियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और इतिहास के जानकारों ने इस निर्णय के खिलाफ आवाज़ उठाई। उन्होंने इसे उस ऐतिहासिक स्मृति को धूमिल करने की कोशिश बताया, जिसने दशकों तक पूरे क्षेत्र की सांस्कृतिक पहचान को गढ़ा। पर, प्रशासन का पक्ष था कि सामुदायिक भवन के रूप में इसका उपयोग व्यापक समाज के लिए लाभकारी होगा। लेकिन विरोध करने वालों का यह स्पष्ट मत था कि विकास और संरक्षण एक-दूसरे के विरोधी नहीं, बल्कि पूरक हो सकते हैं। यह भवन “सांस्कृतिक धरोहर स्थल” के रूप में संरक्षित रहते हुए भी बहुउद्देशीय उपयोग में आ सकता है—बशर्ते नियोजन में संवेदनशीलता और दृष्टि हो। खैर I
कोविड-19 महामारी के दौरान इस भवन ने एक नई भूमिका निभाई। जब अस्पतालों में बेड की भारी कमी हो गई, तब रेलवे प्रशासन ने तत्परता दिखाते हुए इसे अस्थायी कोविड देखभाल केंद्र में परिवर्तित किया। यहाँ मरीजों के लिए अतिरिक्त बेड लगाए गए और प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाएं प्रदान की गईं। यह घटना यह दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि इस भवन की भूमिका न केवल ऐतिहासिक या सांस्कृतिक रही , बल्कि समसामयिक और मानवीय भी रही है।
भारत में कई ऐसे भवन, संस्थान और स्थान हैं, जो इतिहास के पन्नों में भले न हों, पर स्थानीय संस्कृति और समाज की आत्मा में रचे-बसे हैं। एन सी घोष भवन उनमें से एक है। प्रश्न यह है कि क्या हम इन स्मृतियों को केवल बीते समय की बातें मानकर भुला देंगे, या इन्हें संरक्षित कर आने वाली पीढ़ियों के लिए एक जीवित इतिहास के रूप में छोड़ेंगे ?
पर, अब तो सबकुछ ख़त्म हो गया । अब यह ज़मींदोज़ हो गया । खगौल (दानापुर के आसपास के इलाक़ों को इसी नाम से जाना जाता है ) से बिहटा तक बनने वाले फ्लाई ओवर की वजह से यह ध्वस्त हो रहा है । विकास की रफ़्तार ने इसे एक झटके में ख़त्म कर दिया । अफ़सोस , हम नहीं सहेज पाये अपनी सांस्कृतिक विरासत को I क्या हम अपनी सांस्कृतिक विरासत को बचाने के लिए उसे byepass कर फ्लाई ओवर का निर्माण नहीं कर सकते थे ? अब तो कुछ भी नहीं किया जा सकता है । कहीं ना कहीं हमसे चूक हो गई I
अब तो यह समय केवल विरोध करने या फैसले पर पुनर्विचार की मांग करने का नहीं है क्योंकि कुछ बचा ही नहीं । हमारे आँखों के सामने सब कुछ ख़त्म । पर हाँ एक सवाल हमारे सामने छोड़ जा रहा है I आने वाला समय एक व्यापक सामाजिक विमर्श का है, जिसमें प्रशासन, नागरिक, कलाकार, इतिहासकार और योजनाकार एक साथ बैठकर यह तय करें कि विरासत का अर्थ क्या है, और उसका आधुनिक समाज में स्थान कहाँ है।
अगर हम चाहते हैं कि हमारी अगली पीढ़ी सिर्फ स्मार्ट सिटी ही नहीं, स्मार्ट इतिहास और सजग सांस्कृतिक विरासत की भी वारिस बने, तो ऐसे भवनों को केवल ईंट-पत्थर की संरचना मानना छोड़ना होगा।
मनीष वर्मा “मनु”