सम्पादकीय

युवा देश, वृद्ध नेतृत्व: क्या लोकतंत्र में उम्र जनादेश से बड़ी है?

✍️ प्रियंका सौरभ

भारत आज संसार का सबसे युवा देश है। हमारी जनसंख्या का लगभग पैंसठ प्रतिशत भाग पैंतीस वर्ष से कम आयु का है। यही

प्रियंका सौरभ

युवा भारत की शक्ति है, उसकी आकांक्षा है, उसका वर्तमान और उसका भविष्य है। किन्तु यह भी कटु सत्य है कि इस युवा देश का नेतृत्व अब भी उन हाथों में है, जिनकी आयु साठ से पचहत्तर वर्ष के बीच है। प्रश्न यह उठता है कि क्या भारत का लोकतंत्र ऐसा ढाँचा बन चुका है, जहाँ युवा केवल झंडा उठाते हैं, और निर्णय कुर्सियों पर बैठे वृद्ध नेताओं के हाथ में रहता है?

भारतीय संविधान ने यह स्पष्ट किया है कि कोई भी नागरिक पच्चीस वर्ष की आयु में लोकसभा का सांसद बन सकता है तथा पैंतीस वर्ष की आयु में राष्ट्रपति का पद भी ग्रहण कर सकता है। यह बात प्रत्यक्ष रूप से यह दर्शाती है कि हमारा संविधान युवाओं को नेतृत्व के योग्य मानता है। परन्तु व्यवहार में स्थिति इसके बिल्कुल विपरीत है। स्वतंत्रता के पश्चात् आज तक ऐसा कोई प्रधानमंत्री नहीं बना जिसकी आयु चालीस वर्ष से कम हो। राज्यपाल, मुख्यमंत्री, कुलपति, आयोगों के अध्यक्ष — लगभग सभी उच्च पद ऐसे व्यक्तियों के पास हैं जिनकी आयु साठ से ऊपर है। क्या यह केवल एक संयोग है, अथवा एक सुनियोजित राजनीतिक रचना है, जो युवाओं को अवसर प्रदान करने से हिचकिचाती है?

अनुभव का महत्त्व निर्विवाद है, परंतु जब वही अनुभव युवाओं के अवसर को बाधित करने लगे, तब लोकतंत्र का संतुलन बिगड़ने लगता है। आज के समय में नेतृत्व केवल बैठकर निर्णय लेने तक सीमित नहीं है, अपितु उसमें सामाजिक माध्यमों की समझ, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, आर्थिक सूझ-बूझ, वैश्विक सोच तथा तीव्र निर्णय क्षमता की आवश्यकता होती है। और यह सभी गुण प्रायः युवा नेतृत्व में अधिक प्रभावशाली रूप में दृष्टिगोचर होते हैं। यदि एक पच्चीस वर्षीय युवा सैनिक देश की सीमाओं की रक्षा कर सकता है, यदि एक अट्ठाईस वर्षीय वैज्ञानिक अंतरिक्ष अभियान का संचालन कर सकता है, तो एक तीस वर्षीय युवा राजनीतिज्ञ सरकार क्यों नहीं चला सकता?

यह कोई एक राजनीतिक दल की बात नहीं है। भारत की लगभग सभी राष्ट्रीय और प्रादेशिक पार्टियों में शीर्ष नेतृत्व की औसत आयु साठ से ऊपर है। भारतीय जनता पार्टी में नरेंद्र मोदी (चौहत्तर वर्ष), अमित शाह (साठ वर्ष से अधिक), कांग्रेस पार्टी में सोनिया गांधी (सत्तर से अधिक), मल्लिकार्जुन खड़गे (इक्यासी वर्ष), समाजवादी पार्टी से लेकर जनता दल तक — सभी दलों में नेतृत्व उम्रदराज नेताओं के हाथों में केंद्रित है। यह विडंबना ही है कि जो नेता युवाओं से मत माँगते हैं, वही स्वयं सेवानिवृत्ति की आयु पार कर चुके हैं, परंतु सत्ता छोड़ने को तैयार नहीं हैं।

प्रत्येक बड़ी पार्टी में “युवा मोर्चा”, “छात्र संगठन”, अथवा “नवजवान इकाई” अवश्य होते हैं, परंतु उन्हें केवल प्रचार कार्य, झंडे लगाना, नारे लगाना, या सामाजिक माध्यमों पर संदेश साझा करने जैसे सीमित कार्यों में लगाया जाता है। वास्तविक नीतिनिर्माण, टिकट वितरण, मंत्रिमंडल की चर्चा या रणनीति तय करने जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों से उन्हें वंचित रखा जाता है। उन्हें केवल तालियाँ बजाने और भीड़ जुटाने के लिए प्रयोग में लाया जाता है, न कि शासन चलाने के लिए।

इस व्यवस्था को परिवर्तित करने के लिए प्रत्येक राजनीतिक दल को अपने संगठनात्मक ढाँचे में परिवर्तन लाना होगा। उन्हें युवाओं को केवल प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व नहीं, बल्कि वास्तविक निर्णयात्मक भागीदारी देनी होगी। हर दल को निर्वाचन के समय कम-से-कम पच्चीस से तीस प्रतिशत प्रत्याशी युवाओं में से चुनने चाहिए — चाहे वह लोकसभा हो, विधानसभा हो, या स्थानीय निकाय।

साथ ही साथ वरिष्ठ नेताओं के लिए कार्यकाल या अधिकतम आयु की सीमा निर्धारित की जानी चाहिए। जिस प्रकार अन्य सेवाओं में सेवानिवृत्ति की आयु निर्धारित होती है, उसी प्रकार राजनीति में भी सत्तर वर्ष से अधिक आयु के नेताओं को मार्गदर्शक मंडल में रखा जाना चाहिए, न कि वे सक्रिय पदों पर बने रहें।

राजनीतिक नेतृत्व के लिए युवाओं को उचित प्रशिक्षण भी दिया जाना चाहिए। जिस प्रकार भारतीय प्रशासनिक सेवा अथवा पुलिस सेवा के लिए अकादमी होती है, उसी प्रकार राजनीति में भी नीति, विधि, प्रशासन, नैतिकता तथा संवाद-कला की शिक्षा देने वाले संस्थान स्थापित किए जाने चाहिएं। प्रत्येक राज्य तथा केंद्र में युवाओं को नीति-निर्माण की प्रक्रिया में जोड़ा जाना चाहिए, जहाँ उनकी दृष्टि और सुझावों को मान्यता मिले।

नेतृत्व के अवसर की माँग के साथ-साथ युवाओं को स्वयं को तैयार भी करना होगा। राजनीति को केवल करियर या लोकप्रियता का साधन न समझकर जनसेवा का माध्यम मानना होगा। उन्हें विचारधारा की गहराई, नीति की समझ, लोकहित की भावना, तथा संघर्ष का साहस अपने भीतर विकसित करना होगा। साथ ही, उन्हें अफवाहों और झूठे प्रचार से ऊपर उठकर तथ्यों पर आधारित संवाद स्थापित करने की आदत डालनी होगी।

आज के युवाओं में जोश है, नवचिंतन है, नवोन्मेष है, और नेतृत्व की इच्छा भी है — परंतु उन्हें केवल मंच की शोभा बनाकर छोड़ दिया जाता है। उन्हें सत्ता के निकट आने से रोका जाता है। यह लोकतंत्र के साथ अन्याय है।

हमारे इतिहास में जब-जब युवाओं को नेतृत्व मिला है, देश ने नई दिशा पाई है। शहीद भगत सिंह ने केवल तेईस वर्ष की आयु में साम्राज्यवादी सत्ता को हिला दिया था। राजीव गांधी जब प्रधानमंत्री बने, उनकी आयु मात्र चालीस वर्ष थी — और उन्होंने कम्प्यूटर, दूरसंचार, पंचायती राज जैसी दूरदर्शी योजनाओं की नींव रखी। विदेशों में देखा जाए तो संयुक्त राज्य अमेरिका में बराक ओबामा, ऑस्ट्रिया में सेबास्टियन कुर्ज़ — सबने यह सिद्ध किया कि नेतृत्व उम्र से नहीं, दृष्टि और साहस से तय होता है।

भारत की जटिल समस्याएँ — बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, शिक्षा की गिरती गुणवत्ता, जलवायु परिवर्तन, तकनीकी क्रांति — इन सभी के समाधान के लिए नवीन सोच और तेज़ निर्णयों की आवश्यकता है। और यह सब हमें युवा नेतृत्व से ही प्राप्त हो सकता है। देश केवल वृद्ध सेनापतियों से नहीं, युवा कप्तानों से भी आगे बढ़ेगा — जो अपने भीतर ऊर्जा, साहस और स्पष्ट दृष्टि रखते हैं।

आज यह विचार करना आवश्यक है कि क्या हमारे प्रतिनिधि वास्तव में हमारी औसत आयु का प्रतिनिधित्व करते हैं? क्या हमें ऐसी राजनीति नहीं चाहिए जो युवा भारत की आकांक्षाओं को स्वर दे? राजनीति में युवाओं की भागीदारी केवल समय की माँग नहीं, अपितु लोकतंत्र की वास्तविकता का प्रमाण है।

नेतृत्व की उपयुक्तता उम्र से नहीं, विचार और दृष्टिकोण से मापी जानी चाहिए। युवाओं को केवल नारे देने के लिए नहीं, देश चलाने की ज़िम्मेदारी दी जानी चाहिए। तभी हमारा भारत सही अर्थों में एक युवा राष्ट्र कहलाएगा।

 

प्रियंका सौरभ
रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,
कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

(आलेख मे व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं।)

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