सम्पादकीय

 कलम, क्रांति और चेतना: पत्रकारिता का असली धर्म

कलम का रणघोष: पत्रकारिता का सत्य-संघर्ष”
“झुकी नहीं जो कलम: लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की पुकार”
“शब्दों का शस्त्र: जब सच लिखना विद्रोह बन जाए”
“कलम, क्रांति और चेतना: पत्रकारिता का असली धर्म”
“न बिके, न झुके: वो पत्रकारिता जो सवाल करती है”
“वाणी की वज्रधारा: सत्य के रक्षक पत्रकार”
“स्वरचित शौर्य: पत्रकारिता की अग्निपरीक्षा”

कलम का रणघोष: पत्रकारिता का वर्तमान, संघर्ष और ज़िम्मेदारी

✍️ डॉ सत्यवान सौरभ

जिस देश ने ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ का आदर्श दिया, उस देश में पत्रकारिता कोई पेशा नहीं, बल्कि एक नैतिक यज्ञ है। लोकतंत्र का

डाॅ.सत्यवान सौरभ

चौथा स्तंभ कहलाने वाली पत्रकारिता केवल सूचना देने का माध्यम नहीं, बल्कि समाज को सत्य से जोड़ने वाला सेतु है। 30 मई का दिन, पत्रकारिता दिवस, हमें उस विरासत की याद दिलाता है जो भारत के स्वतंत्रता संग्राम से लेकर आज के डिजिटल युग तक सत्य की मशाल थामे चली आ रही है।

🖋️ इतिहास की स्याही में भीगती कलम

भारत में पत्रकारिता का इतिहास कोई नया नहीं है। 1826 में पंडित जुगल किशोर शुक्ल द्वारा प्रकाशित उदंत मार्तंड हिंदी का पहला समाचार पत्र था। यह वह युग था जब अंग्रेज़ी हुकूमत की जंजीरों के बीच भी कलम सच्चाई की आवाज़ बनकर उभरी। बाल गंगाधर तिलक, गणेश शंकर विद्यार्थी, बाबू विजय सिंह पाठक, और महात्मा गांधी जैसे योद्धा पत्रकारिता के माध्यम से जनचेतना फैलाते रहे।

गांधी ने तो पत्रकारिता को ‘जनसेवा का माध्यम’ कहा था। यंग इंडिया, हरिजन और इंडियन ओपिनियन जैसे पत्रों ने न केवल ब्रिटिश राज की नींव हिलाई, बल्कि भारतीय आत्मा को जगाने का कार्य किया।

📺 वर्तमान परिदृश्य: जब समाचार ‘तत्काल प्रसारण’ से टूटने लगे

आज पत्रकारिता का चेहरा पूरी तरह बदल गया है। समाचार केंद्र अब सूचना केंद्र नहीं, बल्कि धनकुबेरों के प्रवक्ता बनते जा रहे हैं। “तत्काल प्रसारण” की होड़ में संवेदनशीलता, तथ्य और संतुलन की बलि चढ़ रही है।

आज दर्शक संख्या और क्लिक की भूख ने खबर को तमाशा बना दिया है। प्रस्तोता अब विचारक नहीं, चिल्लाने वाले सेनापति बन गए हैं। संवाद अब ज्ञान नहीं, गाली में बदल चुके हैं। जनता को सोचने नहीं, भड़कने के लिए उकसाया जा रहा है।

💰 धनकुबेरों की जेब में बंद पत्रकारिता

भारत में अब अधिकांश बड़े समाचार संस्थान उद्योगपतियों के अधीन हो गए हैं। उनकी संपादकीय स्वतंत्रता अब लाभ के आंकड़ों पर टिकी होती है। शासन की आलोचना करना अब देशद्रोह बन गया है। प्रचार पाने के लिए सरकारों की जय-जयकार करना अब ‘पत्रकारिता’ कहा जाने लगा है।

जो पत्रकार किसान, मजदूर, आदिवासी, महिलाओं या पर्यावरण की बात करता है, वह किनारे कर दिया जाता है। कुछ चैनल तो खुलेआम सत्ताधारियों के प्रचारक की भूमिका निभा रहे हैं।

📱 संगणकीय युग और सामाजिक माध्यम की चुनौती

संगणकीय (डिजिटल) माध्यम और सामाजिक मंचों ने एक ओर जहाँ सूचना को जनसुलभ बनाया है, वहीं झूठी खबरों, अफवाहों और घृणा के व्यापार को भी जन्म दिया है। अब हर मोबाइलधारी व्यक्ति पत्रकार कहलाता है, लेकिन उत्तरदायित्व का बोध कम ही लोगों में है।

फेसबुक की पोस्ट और व्हाट्सएप के संदेशों के ज़रिए असत्य को सत्य और सत्य को असत्य बना दिया जाता है। आम नागरिक अब भ्रमित है — क्या सच है, क्या षड्यंत्र?

📷 ज़मीनी पत्रकार: जो खतरों से खेलते हैं

एक ओर वातानुकूलित कक्ष में बैठा प्रस्तोता रोज़ देशभक्ति के भाषण देता है, वहीं दूसरी ओर ग्रामीण क्षेत्रों में, सीमावर्ती क्षेत्रों में, आदिवासी अंचलों में पत्रकार जान जोखिम में डालकर समाचार जुटा रहे हैं।

छत्तीसगढ़, मणिपुर, कश्मीर और उत्तर-पूर्व भारत में कई स्वतंत्र पत्रकारों को या तो बंदी बनाया गया, या लापता कर दिया गया। पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या इसका सबसे डरावना उदाहरण रही।

लोकतंत्र में जहाँ पत्रकार की कलम सबसे सशक्त शस्त्र होनी चाहिए, वहीं भारत अब पत्रकारों के लिए सबसे अधिक जोखिम वाले देशों की सूची में लगातार ऊपर बढ़ रहा है।

📉 महिला पत्रकारों की अनदेखी

महिला पत्रकारों के लिए कठिनाइयाँ दोगुनी हैं। उन्हें न केवल पेशेगत दबावों का सामना करना पड़ता है, बल्कि लिंग आधारित भेदभाव, उत्पीड़न और बदनामी का भी।

संगणकीय मंच पर स्वतंत्र लेखन कर रहीं महिला पत्रकारों को अक्सर व्यक्तिगत हमलों, बलात्कार की धमकियों और चरित्र हनन का सामना करना पड़ता है। यह लोकतंत्र की गंभीर विफलता है।

🧭 पत्रकारिता की दिशा बदलने की आवश्यकता

अब प्रश्न यह है कि क्या पत्रकारिता की आत्मा मर चुकी है? नहीं। आज भी कुछ निडर पत्रकार हैं जो सत्य के लिए जेल तक जा रहे हैं। रवीश कुमार, सिद्धार्थ वरदराजन, मृणाल पांडे, नीलांशु शुक्ला, अनुराधा भसीन, जैसे कई नाम हैं जो जनहितकारी पत्रकारिता को जीवित रखे हुए हैं।

आवश्यकता है इस परंपरा को पुनर्जीवित करने की। आवश्यकता है जनता की भागीदारी की — क्योंकि पत्रकारिता केवल पत्रकारों की नहीं, पूरे समाज की नैतिक ज़िम्मेदारी है।

🌱 जनता क्या कर सकती है?

समाचार साक्षरता बढ़ानी होगी ताकि लोग झूठी खबरों और सत्य में अंतर समझ सकें।

स्वतंत्र पत्रकारों को आर्थिक सहयोग देना होगा — सदस्यता (सब्सक्रिप्शन) के माध्यम से।

नफ़रत और भ्रम फैलाने वाले प्रचारकों का बहिष्कार करना होगा।

पत्रकारों पर अत्याचार के समय मौन नहीं रहना होगा।

🔥 पत्रकारिता दिवस का सच्चा अर्थ

पत्रकारिता दिवस केवल शुभकामनाओं का दिन नहीं, आत्मचिंतन का अवसर है।

क्या हम पत्रकारिता को फिर से आज़ाद कर पा रहे हैं?

क्या हम सत्य बोलने वालों के साथ खड़े हो पा रहे हैं?

क्या हम 75 वर्षों के बाद भी एक निर्भीक मीडिया का सपना साकार कर पाए हैं?

यह समय केवल प्रश्न पूछने का नहीं, बल्कि कलम को फिर से शंखनाद बनाने का है।

✍️ कलम झुके नहीं, बिके नहीं

एक पत्रकार का कार्य केवल समाचार देना नहीं, बल्कि सत्ता से प्रश्न करना है। पत्रकारिता का धर्म है — जनता के पक्ष में खड़ा रहना, जब सभी चुप हो जाएं।

आज जब दुनिया “सत्योत्तर युग” की ओर बढ़ रही है, तब भारत को ऐसी पत्रकारिता चाहिए जो किसी भी सत्ता, उद्योगपति या प्रचार सेना की गुलाम न हो।

जिस दिन हर पत्रकार अपनी कलम को शासन की सेवा में नहीं, समाज की सच्चाई के लिए उठाएगा — वही दिन पत्रकारिता दिवस का सच्चा उत्सव कहलाएगा।

 

🙏 उन सभी पत्रकारों को नमन जो चुप नहीं रहते, जो लिखते हैं, लड़ते हैं, और लोकतंत्र की आत्मा को ज़िंदा रखते हैं।
💐 पत्रकारिता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ! 💐

 

डॉo सत्यवान सौरभ,
कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट,

(आलेख मे व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं।)

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