कुल्हड़ में चाय, धुएं में बातें और टपरी पर जिंदगी, “रविवारीय” में पढ़िए एक ठहराव, एक मुलाकात, एक कहानी
चाय की टपरी एक छोटा सा नाम, पर यादों, मुलाकातों और क़िस्से कहानियों का बड़ा संसार। यह आपको हर जगह मिल सकता है।

रेलवे स्टेशन के बाहर, बस स्टैंड के बाहर, किसी कालेज के गेट के पास या फिर किसी दफ्तर के मोड़ पर। चाय की टपरी सिर्फ और सिर्फ महज़ एक चाय की दुकान नहीं बल्कि वो तो एक मुकाम है, जहां आ कर जिंदगी थोड़ी देर के लिए ही सही थम सी जाती है। यहां कोई किसी का इंतज़ार कर रहा होता है, तो कोई किसी अपनों से बतिया रहा होता है तो कोई अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए चाय पी रहा होता है। यह तो वो जगह है जहां दस रुपए की चाय में दोस्ती, राजनीति, इश्क़ और तमाम तरह के सामाजिक आर्थिक मुद्दे उबाले जाते हैं वो भी मसालों के साथ।
चाय की टपरी – आप कह सकते हैं भीड़ के बीच सुकून तलाशने की एक जगह जहां धुएं में बातों की खुशबू घुली होती है और चाय की कुल्हड़ों में सपने।
अमुमन शहर के लगभग हर एक कोने में एक चाय की टपरी होती है। हमारे शहर पटना में भी चाय की कई टपरियां थीं। मुझे याद है जब चाय की टपरियों का अपना कोई ख़ास नाम नहीं हुआ करता था तब पटना में बड़ा ही फेमस एक चाय की टपरी हुआ करती थी – नाम था डिंग डांग। काफी चर्चे थे उसके। लोग बाग दीवाने थे डिंग डांग की चाय के। दूर दूर से लोग उसकी चाय पीने आया करते थे। चर्चाएं होती थीं – आखिर डिंग डांग की चाय इतनी ख़ास क्यों है। ? अब तो लगभग हर चायवाले ने अपनी टपरी का एक नाम रख रखा है – कोई एम बी ए चाय वाला है तो कोई ग्रेजुएट चाय वाला। किसी ने अपनी टपरी का नाम बेरोजगार चाय वाला रख रखा है तो किसी ने कुछ और ही। अब तो इस व्यवसाय में कई महिलाएं भी शामिल हैं जो पहले नहीं दिखाई देता था। पटना शहर में कुछ समय पहले तक ग्रेजुएट चाय वाली के बड़े चर्चे थे।
कोविड
महामारी के बाद इस तरह के कियोस्क खोलने का एक नया दौर चल पड़ा है। पटना में हमारे दफ़्तर के गेट के ठीक सामने एक बड़ा इमली का पेड़ हुआ करता था जो अब नहीं रहा। विकास की भेंट चढ़ गया है। उसके नीचे ही एक चायवाला हुआ करता था। जब किसी को ढूंढना हो बस वहीं पर इमली तल पर मिल जाया करता था। हर वक्त एक चहल-पहल रहती थी वहां पर। एक पहचान थी उस इमली के पेड़ की। खैर! अब तो सिर्फ़ और सिर्फ़ स्मृतियों में ही है।
यहां भी लखनऊ में हमारे दफ्तर के पास कई चाय की टपरियां हैं – अमित की चाय तो ठाकुर की चाय तो ठाकुर की पुरानी चाय। द चाय हब तो मारवाड़ी चाय ।एक लाइन से सड़क के दोनों तरफ लगभग सात-आठ दुकानें हैं। सब के लगभग अपने अपने तय ग्राहक हैं। सब की अपनी एक पृथक पहचान है । दिनभर वहां चहल-पहल रहती है। कभी बाबूओं का समूह वहां चाय पीता हुआ दिख जाता है तो कभी एक छोटी सी मेज़ के चारों ओर छोटे छोटे स्टूलों पर बैठे हुए कालेज के छात्र छात्राएं तो कभी आस-पास के दफ्तरों में काम करने वाले लोग। सुबह से शाम तक हमेशा गुलज़ार रहता है यह इलाका।
हाथ में चाय की छोटी कुल्हड़ और साथ में बातों की लंबी श्रृंखला। क्रिकेट से लेकर राजनीति तक और दिल की लगी तक।
सरकारी बाबुओं के बातों का दायरा तो घुमा-फिरा कर कार्यालय और अफसरों की बातें। अपने दिल के जज़्बातों को, उद्गारों को वेंटआउट करने के लिए एक महफूज़ जगह।
अगर कहें तो लोकतंत्र की सच्ची आवाज आपको यहीं मिलेगी। दस रुपए की चाय पर पुरे विश्व भर की राजनीति पर चर्चा। हर कोई यहां पोलिटिकल एनालिस्ट है। यह असहमति का वो सुरक्षित स्थान है जहां गर्मागर्म बहस हो सकती है, पर दोस्ती फिर भी महफूज रहती है।
चाय की टपरी एक ऐसी जगह है जहां विचार बिकते नहीं उबलते हैं। दोस्ती बनती नहीं बल्कि जमती है। यहां चाय महज एक प्याली भर नहीं बल्कि एक बहाना है – रूकने का, सोचने का और बिंदास जीने का।
चलते चलते। एक चाय की टपरी के आगे लिखा था – ” सिर दर्द की राष्ट्रीय दवा – चाय” । वाकई जो चाय के दीवाने हैं कोई उनसे जाकर पूछे इसका सबब।
✒️ मनीश वर्मा’मनु’