सम्पादकीय

समय का चक्र और हम, “रविवारीय” में आज पढ़िए- जिम्मेदारियों से अनुभव तक की अनकही यात्रा

वक्त वक्त की बात है। समय का पहिया कहां रुकता है भला? वह तो अपनी ही गति से, अपने ही ठहराव और तूफानों के साथ, निरंतर चलता रहता है। हम कितने भी शक्तिशाली क्यों न हों,

मनीश वर्मा, लेखक और विचारक

समय पर हमारा कोई वश नहीं चलता। वह न रुकता है, न मुड़ता है—बस चलता रहता है, अपने नियमों पर, अपने ढंग से।
बात उन दिनों की है जब हम किशोरावस्था की चौखट पार कर रहे थे। स्कूल कालेज की क्लास दर क्लास पार करते हुए अब हम उस मुकाम पर पहुंच चुके थे ,जहां से हमारे व्यावसायिक और व्यावहारिक जीवन की शुरुआत होनी थी। अब पढ़ाई लगभग पूरी हो चुकी थी , पर अब तो जीवन की असली परीक्षा की बारी थी। घर-परिवार की अपेक्षाएं सिर उठाने लगी थीं। पिताजी का होटल—जिसे उन्होंने बरसों की मेहनत से खड़ा किया था—अब प्रश्नवाचक निगाहों से हमारी ओर देख रहा था। उनकी आंखों में एक मौन आग्रह था—क्या अब मेरी बारी है?

हमारे पास जवाब तो था, पर उन्हें कुछ कहने बोलने का साहस नहीं। हम कुछ चुपचाप निगाहें चुराते हुए इधर उधर देखते, फिर नजरें फेर लेते। पर सच्चाई से कब तलक आप मुँह मोड़ सकते हैं । मन के भीतर एक हलचल सी थी। जिम्मेदारी का एहसास तो था, पर शायद मन अब भी सही समय की प्रतीक्षा में था। पर क्या समय किसी की प्रतीक्षा करता है? बिल्कुल नहीं! वह तो अपनी ही गति से चलता रहता है। हम चाहें या न चाहें, सही वक्त अपने समय पर ही आता है।
फिर एक दिन वह वक्त भी आया। पढ़ाई के बाद नौकरी मिली—वह भी अच्छी। घर में ख़ुशी की लहर दौड़ गई। ऐसा लगा मानो यही ज़िंदगी है । ज़िंदगी के मायने शायद उस वक़्त एक अदद नौकरी ही हुआ करती थी एक मध्यम वर्गीय परिवार के लिए । तब से अब तक बहुत कुछ बदला, अगर नहीं बदला तो सिर्फ़ और सिर्फ़ मध्यम वर्गीय सोच । नौकरी आज भी अहम है हमारे लिए कुछेक अपवादों को छोड़कर ।
फिर समय आया शादी का, वह भी हो गई। धीरे-धीरे जीवन की गाड़ी आगे बढ़ने लगी। कल तक जो स्वयं बच्चे थे, अब खुद बच्चों के माता-पिता बन चुके थे। जिम्मेदारियां धीरे-धीरे बढ़ती चली गईं। पहले खुद के लिए जीते थे, अब परिवार के लिए जीने लगे।
समय अपनी रफ्तार से बहता रहा। कल की चिंताएं कुछ और थीं, आज की कुछ और हैं। पहले बच्चे रात में सोते नहीं थे, तो नींद नहीं आती थी। अब वे पढ़ाई में लगे हैं, तो चिंता और अपेक्षाएं साथ सोने लगी हैं। बच्चे बड़े हुए, स्कूल गए, हमने राहत की सांस ली। पर कहां मालूम था कि ये केवल जिम्मेदारियों के रूप बदल रहे हैं—उनका भार कभी कम नहीं होता।

बच्चों ने अपनी स्कूली पढ़ाई पूरी की। अब उन्होंने उच्च शिक्षा के लिए बाहर के शहरों का रुख किया है। अपनी पढ़ाई और अपनी ही दुनिया में वो मशगूल हैं । ऐसा नहीं कि वो हमसे दूर हैं, पर उनकी प्राथमिकता बदल गई है । हमें इस सच्चाई को स्वीकार करना होगा ।आख़िर कब तक हम सच्चाई से मुँह मोड़ अपने आप से ही झूठ बोलते रहेंगे । कल हम चाहते थे कि सब कुछ जल्दी जल्दी हो जाए । आज हम समय को पकड़ने की कोशिश कर रहे हैं । उसे रोकने की कोशिश कर रहे हैं, पर क्या यह संभव है? हमारे बच्चे उड़ान भरने को तैयार हैं, और हम… हम एक बार फिर उसी मोड़ पर खड़े हैं, जहां से कभी हमने शुरुआत की थी। जीवन का चक्र मानो फिर उसी जगह पहुंच गया है, लेकिन इस बार हम पहले जैसे नहीं हैं। अनुभव, उम्र और समय की परछाइयों के साथ हम बदल चुके हैं। एक दूसरे के बच्चों के जन्मदिन, फिर अपनी और दोस्तों की एनीवर्सरी मनाते हुए आज हम यहाँ आ पहुँचे हैं । हमारे बाद वाली पीढ़ी अब अपनी पारी की शुरुआत कर रही है ।
हमारी सरकारी अनुबंध भी अब ख़त्म होने को है । कहने को हमारी दूसरी पारी तैयार है,पर यह सब कहने की बातें हैं । हम सब इससे वाक़िफ़ हैं । आश्रम बदल गया है । समय का पहिया अनवरत चलता ही जा रहा है । हम भी कहाँ रुक रहे हैं । देखें मंजिल पर कब पहुँचते हैं??
समय, जीवन की रेखा पर निरंतर चलने वाली वह स्याही है, जो हर दिन नया कुछ लिखती है। हम बस पात्र हैं, जो उस लेखन को जीते हुए अपना किरदार निभाते हैं।

🖋️ मनीश वर्मा ‘ मनु ‘

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