सम्पादकीय

300 पक्षियों की मौत, 500 अंडे टूटे, “रविवारीय” में आज पढ़िए- क्या हमारी सुविधा उनकी ज़िंदगी से बड़ी है?

उत्तर प्रदेश के ऐतिहासिक शहर झाँसी से आई एक हृदयविदारक घटना ने हमें सोचने पर मजबूर कर दिया है। एक विशाल पीपल का

मनीश वर्मा, लेखक और विचारक

पेड़, जो लगभग 40 साल पुराना था, महज़ इस कारण काट दिया गया कि उसके नीचे खड़ी कारें पक्षियों की बीट से गंदी हो जाती थीं। लेकिन क्या किसी ने सोचा कि इस निर्णय से कितने पक्षियों की ज़िंदगी ख़त्म हो जाएँगी ?
पेड़ कटने के बाद उसकी डालियों के बीच दबकर 300 से अधिक पक्षियों की मौत हो गई, लगभग 500 अंडे टूट गए, और सैकड़ों पक्षी घायल हो गए। वे मासूम परिंदे, जिन्होंने उस पेड़ को अपना घर समझ रखा था, अचानक बेघर हो गए। कितने परिंदों के घोंसले टूट गए । उनकी चहचहाहट हमेशा के लिए खामोश हो गईं। कोई हमें अचानक से हमारे घर से हमें बेदखल कर दे , हमारे बच्चे सडकों पर आ जायें I हमें कैसा लगेगा ? पक्षियों का भी परिवार होता है । भले ही उनके संवाद हम ना समझ पाएँ, पर वो भी अपने बच्चों से बातें करते हैं । उनकी भी भावनाएं होती हैं-
हमारे लिए यह पेड़ का कटवाना शायद “सुविधा” का मामला था—कारें साफ़ रहें, बीट से दाग न लगें। पर अहम् सवाल यह है कि क्या हमारी थोड़ी-सी सुविधा के लिए इन बेजुबानों की जिंदगी की कोई कीमत नहीं ? ज़िंदगी तो बस ज़िंदगी चाहे इंसानों की हो या परिंदों की । सर्वशक्तिमान ने सभी के अंदर चाभी भरी हुई है । हम कौन होते हैं सर्वशक्तिमान के बनाए हुए नियमों से खिलवाड़ करने वाले ।
हम खुद को “धरती का सबसे बुद्धिमान जीव” कहते हैं, लेकिन ऐसे काम करके क्या सचमुच हम इंसान कहलाने के योग्य रह गए हैं ? अगर हम अपने आस-पास के पक्षियों, पशुओं और पेड़ों के अस्तित्व को ही नकार देंगे तो इंसान और इंसानियत में अंतर कहाँ बचेगा? यह केवल एक पेड़ का कटना नहीं, बल्कि पर्यावरण, जीवन और करुणा की जड़ों पर कुल्हाड़ी चलाना है।
हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाते हुए कहा कि – “पशु और पक्षी भी इस धरती के बराबर के हिस्सेदार हैं। उनके भी मौलिक अधिकार हैं, जिनमें जीने का अधिकार शामिल है।”
यह फैसला आया तो था कुत्तों के संदर्भ में , पर इसका दायरा बड़ा व्यापक है। सर्वोच्च न्यायालय ने साफ़ कहा कि सभी जीव-जंतु हमारे संवैधानिक संरक्षण के हक़दार हैं, और हमें उनके साथ वैसा ही व्यवहार करना चाहिए जैसा एक संवेदनशील समाज से अपेक्षित है।
हमारी अदालतें तक यह मान रही हैं कि बेजुबानों की जान की भी कीमत होती है, तब आम नागरिकों और प्रशासन का दायित्व और भी बढ़ जाता है। ऐसे में झाँसी जैसी घटनाएँ न केवल संवेदनहीनता दर्शाती हैं, बल्कि यह भी दिखाती हैं कि हम अब भी प्रकृति और जीव-जंतुओं के अधिकारों को गंभीरता से नहीं ले रहे।
आज हमें यह आत्ममंथन करना होगा कि क्या कुछ कारों को गंदा होने से बचाने के लिए हम सैकड़ों जिंदगियाँ कुर्बान करने के हक़दार हैं ? पेड़ सिर्फ लकड़ी का ढांचा नहीं होता, वह सैकड़ों परिंदों का घर, अनगिनत साँसों का सहारा और हमारे पर्यावरण का प्रहरी होता है। यदि वास्तव में हमें सचमुच इंसान कहलाने का अधिकार चाहिए तो हमें अपनी सोच और संवेदनाओं को बदलना होगा। हमें यह स्वीकार करना होगा कि – पृथ्वी पर न तो केवल इंसानों का अधिकार है, न ही इंसानों की सुविधाएँ सबसे बड़ी हैं। प्रकृति और उसमें बसे हर जीव का अस्तित्व और जीवन का अधिकार उतना ही पवित्र है जितना हमारा।

मनीश वर्मा ‘ मनु ‘

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