“जब भारत जागता है, तो दुश्मन थरथराता है, “रविवारीय” में पढ़िए शौर्य, संयम और संप्रभुता की कहानी”
सन् 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध की बात करें तो उस समय हम इस ब्रह्मांड में कहीं थे ही नहीं। हमारा कोई अस्तित्व नहीं था—न इस धरती पर, न चेतना में। पर जैसे-जैसे होश संभाला, इतिहास

की किताबों, फिल्मों और किस्सों के माध्यम से भारतीय सेना की शौर्यगाथाएँ हमारे मन-मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव छोड़ने लगीं।
सैम मानेकशॉ— भारतीय सेना के वो शूरवीर सेनापति, जिन्होंने 1971 में पाकिस्तान को घुटनों पर ला दिया—हमारे बचपन के आदर्श बन गए। हाल ही में जब उनकी जीवनी पर आधारित फिल्म देखी, तो सीने में देशभक्ति का एक अलग ही जोश उमड़ पड़ा। एक अजीब-सा रोमांच, एक गर्व की अनुभूति पूरे समय मन को झकझोरती रही।
इसके बाद आया कारगिल युद्ध। उस समय हम सजग नागरिक थे—समाचार देख सकते थे, समझ सकते थे। हमने देखा कि कैसे हमारे बहादुर जवानों ने विषम परिस्थितियों में दुश्मन को करारा जवाब दिया। हां, उस युद्ध में हमने अपने कई वीर सपूतों को खोया, पर यह बलिदान एक विश्वासघात के जवाब में था। दुश्मन ने हमारी पीठ में छुरा भोंका था, लेकिन हमने समय लेकर, रणनीति बनाकर उन्हें उन्हीं की ज़मीन पर पछाड़ा।
सच तो यह है कि युद्ध बराबरी वालों के बीच लड़े जाते हैं, और पाकिस्तान न तो शक्ति में हमारे समकक्ष है और न ही मानसिक दृढ़ता में। इसलिए वह हमेशा छद्म युद्ध का रास्ता अपनाता है—आतंकवाद, घुसपैठ और सीमा पार से गोलीबारी उसका हथियार है। पर हर बार, हर मोर्चे पर उसे मुँह की खानी पड़ी है।
पहलगाम की घटना इसी छद्म युद्ध का एक और अध्याय थी। एक नितांत कायराना हरकत।पाकिस्तान ने हमारे संयम को हमारी कमजोरी समझने की भूल की। उसे यह आभास नहीं था कि उसके इस दुस्साहस के पीछे करोड़ों अरबों भारतीयों की भावनाएं आहत हो चुकी हैं। और जब भारत जागा, तो दुश्मन को समझ में आ गया कि हमने सिर्फ वार नहीं किया है—हमने चेतावनी दी है। दो दिन में ही उसकी हालत पतली हो गई। हर मोर्चे पर उसे नाकामयाबी हासिल हुई।युद्धविराम की गुहार लगाई गई, लेकिन हमें यह स्पष्ट करना होगा कि हमने युद्ध ख़त्म नहीं किया, हमने सिर्फ एक मौका दिया है—शांति का, पुनर्विचार का।
पाकिस्तान को यह समझना होगा कि निर्णायक लड़ाइयाँ युद्धभूमि में लड़ी जाती हैं, सोशल मीडिया पर नहीं। अगर वह अब भी नहीं समझा, तो अगली बार यह लड़ाई उसके अस्तित्व का सवाल बन जाएगी।
कहने को युद्ध किसी के लिए भी वांछनीय नहीं होता। दोनों ओर जान-माल की क्षति होती है, समाज और संस्कृति पर गहरा असर पड़ता है। लेकिन जब बात राष्ट्रीय स्वाभिमान और संप्रभुता की हो, तब युद्ध केवल एक विकल्प नहीं रह जाता—वह कर्तव्य बन जाता है।
हमने बार-बार सिद्ध किया है कि हमारा धैर्य हमारी शक्ति है, हमारी कमजोरी नहीं। सन् 1971 का युद्ध हो, 1999 का कारगिल संघर्ष हो या 2008 के मुंबई हमलों के बाद की कार्रवाई—भारत ने हर बार विजय पताका फहराई है।
हम शांति चाहते हैं, पर आत्मसम्मान की कीमत पर नहीं।
जय हिंद, जय भारत।
✒️ मनीश वर्मा’मनु’