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पटना की सीटों पर बढ़ी सरगर्मी, कायस्थ नाराज, भाजपा की उम्मीदवार सूची पर टिकी बिहार की सियासत

पटना की सीटों पर बढ़ी सियासी हलचल, कायस्थों की नाराजगी से भाजपा के माथे पर शिकन

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 का शंखनाद हो चुका है। राज्य में छह और ग्यारह नवंबर को दो चरणों में मतदान होना है। पहले चरण के लिए नामांकन प्रक्रिया 10 अक्टूबर से शुरू हो चुकी है, लेकिन अभी तक किसी बड़े राजनीतिक दल ने अपने उम्मीदवारों की आधिकारिक घोषणा नहीं की है। राजधानी पटना में भी पहले चरण में मतदान होना है, लेकिन उम्मीदवारों के नाम को लेकर सस्पेंस बना हुआ है। इसी बीच पटना की चार प्रमुख शहरी सीटों, बांकीपुर, कुम्हरार, पटना साहिब और दीघा में से दो सीटों पर संभावित बदलावों को लेकर राजनीतिक सरगर्मी तेज हो गई है।

इन चारों सीटों पर फिलहाल भाजपा का कब्जा है, लेकिन पार्टी के अंदरूनी सूत्रों के मुताबिक इस बार दो सीटों पर उम्मीदवार बदलने की चर्चा जोर पकड़ चुकी है। खबर है कि कुम्हरार सीट से लगातार तीन बार जीत चुके अरुण कुमार सिन्हा को हटाकर एक निवर्तमान मंत्री को मैदान में उतारा जा सकता है। वहीं पटना साहिब सीट से वरिष्ठ नेता नंद किशोर यादव की जगह प्रदेश के एक बड़े नेता के चुनाव लड़ने की अटकलें हैं।

इन संभावित बदलावों ने भाजपा के पारंपरिक वोट बैंक, खासकर कायस्थ समुदाय के बीच असंतोष को जन्म दिया है। कायस्थों को लंबे समय से भाजपा का मजबूत समर्थक वर्ग माना जाता रहा है, लेकिन अब यह समुदाय खुद को पार्टी की रणनीति से उपेक्षित महसूस कर रहा है। पटना की जातीय राजनीति में कायस्थों की भूमिका हमेशा से अहम रही है। दीघा विधानसभा सीट को कायस्थ बहुल क्षेत्र माना जाता है, लेकिन भाजपा ने वहां गैर-कायस्थ उम्मीदवार उतारा था। पटना शहरी सीट पर नवीन किशोर सिन्हा, ठाकुर प्रसाद, शैलेंद्र नाथ श्रीवास्तव, शत्रुघ्न सिन्हा, मौजूदा सांसद रविशंकर प्रसाद जैसे दिग्गज कायस्थ नेता रहे हैं। इसके अलावा महामाया प्रसाद भी यहां से सांसद रहे हैं।

कुम्हरार सीट पर गैर-कायस्थ उम्मीदवार के नाम की चर्चा भर से ही कायस्थ समाज में नाराजगी देखने को मिल रही है। जबकि पटना की कुम्हरार सीट पर कई बड़े कायस्थ नेता दावेदार हैं और उनकी साख अच्छी भी है। लेकिन भाजपा ने इसके बावजूद कुम्हरार से कायस्थ नेता का नाम काट दिए जाने की खबर है। बताया जा रहा है कि इसका असर राज्य की अन्य सीटों पर भी पड़ सकता है। कई स्थानीय कार्यकर्ताओं और भाजपा के पुराने समर्थकों का कहना है कि अगर पार्टी ने कायस्थों को फिर नजरअंदाज किया, तो यह असंतोष चुनावी नतीजों को प्रभावित कर सकता है। कायस्थ समुदाय का मनोबल टूटना भाजपा के लिए बड़ी चुनौती बन सकता है, क्योंकि बिहार की शहरी सीटों पर यह वर्ग निर्णायक भूमिका निभाता है। बिहार के लगभग हर जिला मुख्यालय में कायस्थ समुदाय की उल्लेखनीय उपस्थिति है, और पारंपरिक रूप से भाजपा ने इन्हीं शहरी इलाकों से अपनी जीत की रणनीति बनाई है। ऐसे में पटना जैसे राजनीतिक रूप से अहम जिले में अगर कायस्थों का समर्थन कमजोर पड़ा, तो इसका असर पार्टी की अन्य सीटों पर भी पड़ सकता है।

अब सबकी निगाहें भाजपा की उम्मीदवार सूची पर टिकी हैं। क्या पार्टी कायस्थ समाज को साधने के लिए अपनी रणनीति में बदलाव करेगी या सियासी समीकरणों को प्राथमिकता देकर नए चेहरों पर दांव लगाएगी? इसका जवाब आने वाले दिनों में बिहार की राजनीति की दिशा तय करेगा। अगर भाजपा इसको लेकर गम्भीर नहीं हुई तो कायस्थों का वोट कहीं और शिफ्ट होने से परहेज नहीं हो सकता है। यह बिरादरी भले ही खुलकर नहीं बोले मगर इनकी ताकत से हर दल वाकिफ हैं। इसलिए इस पर भाजपा को ठोस निर्णय लेना चाहिए ताकि अपने वोटर्स का सम्मान बरकरार रह सके।

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