सम्पादकीय

अब वे हमारे साए नहीं, “रविवारीय” में पढ़िए बच्चे अपने आसमान के मालिक हैं

हमें अपने समय में कहाँ पता था कि मिलेनियल्स या जेन ज़ी क्या होते हैं। हमारे लिए तो बचपन का मतलब बस बचपन था — न किसी दायरे का ज्ञान, न किसी सीमारेखा की पहचान। हम तो बस

मनीष वर्मा, लेखक और विचारक

उड़ना जानते थे, बिल्कुल आज़ाद परिंदों की तरह। कोई रोक-टोक नहीं और न ही किसी प्रदर्शन की चिंता। बस अपनेपन, सादगी और सहजता से भरे हुए दिन।
खैर! बातें बच्चों के बड़े होने की हो रही हैं। वाक़ई, वो अब सचमुच बड़े हो गए हैं।
जब बच्चे बिल्कुल छोटे होते हैं — या यूँ कहें कि जब वो माँ के रज्जु-नाल से अपना पहला नाता तोड़कर इस दुनिया में कदम रखते हैं — तब हमारी सबसे बड़ी चाहत यही होती है कि वे जल्दी से जल्दी बड़े हों जाएं,हमसे बातें करें, मुस्कुराएँ। उनकी एक मुस्कान ही हमारे लिए संसार की सबसे बड़ी खुशी होती है।
धीरे-धीरे वो घुड़कना शुरू करते हैं, फिर चलना सीखते हैं, फिर बोलने लगते हैं — और हमें लगता है, बस अब तो दुनिया हमारी हो गई। कुछ ही समय बाद उनके छोटे-छोटे हाथों में पेंसिल आ जाती है। दीवारों पर टेढ़ी-मेढ़ी लकीरें बनती हैं — जो घर की दीवारों को नहीं, हमारी उम्मीदों को रंग देती हैं। हर कोना, हर दीवार उनकी उपस्थिति की गवाही देने लगता है कि घर में अब एक विद्यार्थी रहता है जिसने अब पुरी तन्मयता से अपनी पढ़ाई शुरू कर दी है ।
शुरुआत में बच्चों की पढ़ाई का अर्थ होता है — स्कूल जाना, हम उम्र बच्चों से मिलना , जमकर खेलना और मनपसंद खाना खाना । इससे हटकर कहाँ उनकी दुनिया होती है । वाक़ई इससे बेहतर ज़िंदगी कहाँ होती है। हम भी चाहते हैं कि वो जल्दी बड़े हों ताकि हम थोड़ा निश्चिंत हो सकें, अपनी ज़िम्मेदारियों से कुछ पल का राहत पा सकें। लेकिन यह सोच महज़ एक मृग-मरीचिका है।
असल सच्चाई यह है कि माता-पिता की ज़िम्मेदारियाँ कभी समाप्त नहीं होतीं। वे बस रूप बदलती हैं — दूध के बोतल से लेकर कॉलेज की फीस तक, रिपोर्ट कार्ड से लेकर करियर सलाह तक, और फिर जीवन के हर छोटे-बड़े निर्णय तक। पूरी ज़िंदगी एक निरंतर यात्रा बन जाती है — छोटे-छोटे लक्ष्यों का निर्धारण और उनकी प्राप्ति की दिशा में अनथक प्रयास। हम बस अनवरत उसी दिशा में आगे बढ़ते रहते हैं । कब हमारे बालों में सफेदी आ गई उसका अहसास ही हमें नहीं हुआ । समय पंख लगाकर उड़ता जा रहा था । शुरुआत में तो भागदौड़ की ज़िंदगी में समय का पंख लगाकर उड़ना अच्छा लगता था, पर अब जब समय को पकड़ने की कोशिश करते हैं तो वो और भी तेज़ गति से आगे बढ़ जाता है ।
फिर कब वो बच्चे, जो हमारे साथ हर बात साझा करते थे, अपनी सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए घर से बाहर निकल गए — हमें पता ही नहीं चला। उन्होंने अपनी-अपनी दुनिया बना ली, अपने सपनों के आसमान में उड़ने लगे। अब वो घर आते हैं तो मेहमानों की तरह — दो-चार दिन रुकते हैं, और फिर अपनी दुनिया में लौट जाते हैं। बिल्कुल उन्हीं प्रवासी पक्षियों की तरह जो मौसम के बदलाव के साथ कुछ समय के लिए लौटते हैं, पर ठहरते नहीं।
अभी हाल में एक यात्रा के दौरान यह अहसास और गहरा हुआ।
हम सपरिवार कहीं जा रहे थे। हाईवे का सफर था — लंबा, खुला, और आत्ममंथन के लिए उपयुक्त। अमूमन माता-पिता अपने बच्चों के प्रति बेहद संवेदनशील होते हैं, कहीं न कहीं अति-संरक्षणशील भी। हम नहीं चाहते कि वे किसी भी प्रकार से अपने आप को असुरक्षित महसूस करें।

रास्ते में मैंने यूँ ही अपनी बेटी से कहा — “चलो, कुछ देर के लिए तुम ड्राइविंग सीट पर आ जाओ।”
शुरुआत में मैं एक आलोचक की तरह उसकी हर हरकत पर नज़र रख रहा था — कहीं गाड़ी ज़्यादा तेज़ तो नहीं, कहीं ब्रेक देर से तो नहीं लग रही, पर कुछ ही देर में मुझे एहसास हो गया कि उसकी ड्राइविंग स्किल मुझसे कहीं बेहतर है। उसने न सिर्फ गाड़ी संभाली, बल्कि सफ़र को भी आसान बना दिया। उस क्षण मुझे भीतर से एक अनकहा सुकून मिला और उस सुकून ने भावनाओं के समंदर में मुझे छोड़ दिया जहाँ मैं बचपन से लेकर अब तक की उसकी यात्रा को फ़्लैशबैक में जाकर देखने की कोशिश करता रहा — मुझे वास्तव मे ऐसा महसूस हुआ कि जैसे किसी ने यह कह दिया हो कि “अब वे सचमुच सक्षम हैं।”
आज के बच्चे हमारे समय के बच्चों से बहुत आगे हैं। वे आत्मविश्वास से भरे हैं, तार्किक हैं, और तकनीक के ज़रिए दुनिया को बहुत पहले से समझ चुके हैं। वे बोलते भी हैं, सोचते भी हैं, और अपने निर्णयों पर अडिग रहते हैं। परंतु इस सबके बीच, उन्हें हमारी ज़रूरत अब भी है — हमारे अनुभवों की, हमारी चुप्पियों में छिपे जीवन-पाठों की।
शायद यही हमारी भूमिका रह जाती है — अब उन्हें सिखाने की नहीं, बल्कि अपने अनुभवों को साझा करने की; ताकि वे दिग्भ्रमित न हों, और अपने पंखों की दिशा पहचान सकें।
कभी वे हमारे बच्चे थे, अब अपनी दुनिया अपने भविष्य के निर्माता हैं।
पर हर बार जब वे लौटते हैं — घर में हँसी गूंज उठती है, दीवारें फिर से कुछ कहने लगती हैं, और हमें लगता है कि शायद हम फिर से थोड़े बच्चे हो गए हैं।

मनीष वर्मा “मनु”

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