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“ज़िंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं… मैं तो मरकर भी मेरी जान तुझे चाहूंगा”, उस्ताद मेंहदी हसन यूं ही ग़ज़लों के शहंशाह नहीं कहे जाते…

ग़ज़लों के शहंशाह उस्ताद मेंहदी हसन का ज़िक्र रूमानी अहसास कराता है। मेंहदी हसन उस शख्सियत का नाम है जिन्होंने ग़ज़ल के मायने समझाए क्योंकि इससे पहले मौशुकी और शेरो-शायरी से ज्यादा ऊर्दू और हिंदी से सजी अल्फाज़ की पहचान नहीं थी। हां अमीर खुसरो, उस्ताद बड़े गुलाम अली खां सरीखे लोगों ने भी ग़ज़लों को पहचान जरूरी दिलायी लेकिन भारत समेत पूरी दुनिया में ग़ज़लों की नयी पहचान कराने का श्रेय मेंहदी हसन को जाता है जिन्होंने भारत और पाकिस्तान के कई नामचीन शायरों को अपनी आवाज़ देकर उन्हें भी मुकम्मल सम्मान दिलाया। उनकी एक से बढ़कर एक ग़ज़ल आज भी दुनिया भर में सुनी जाती है जिसमें उनकी आवाज़ की जादूगरी के साथ ही अल्फाज़ की बाज़ीगरी भी देखने को मिलती है। मीर तकी मीर, अहमद फराज़, कतिल शिफाई जैसे नामचीनों को छोड़ दें तो कई ग़ज़ल लेखकों को हसन साहब ने बड़ी पहचान दिलायी। उनकी कुछ ग़ज़लों को सुनकर आज भी रोम-रोम खड़े हो जाते हैं और इतना नहीं नहीं पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सबसे पसंदीदा ग़ज़ल रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आओ…आ फिर से छोड़ के मुझे जाने के लिए आओ…उनके सबसे लोकप्रिय ग़ज़लों में से एक थे। भारत रत्न और सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर तो उन्हें ईश्वर की आवाज़ ही मानती थी लेकिन हसन साहेब को इतने पर भी कोई घमंड नहीं था और वो अपने अंतिम वक्त में इस लालसा में थे कि वो लता जी के साथ एक अलबम रिकार्ड करें। हालांकि ये तमन्ना पूरी नहीं हो पायी लेकिन देश और दुनिया में तकरीबन सौ से ज्यादा अलबम उनकी आवाज़ को आज भी घर-घर पहुंचा रही है।

कभी पैसे के लिए अपनी ग़ज़लों का सौदा नहीं किया

1957 में पाकिस्तानी रेडियो से अपने सफर की शुरूआत करने वाले मेंहदी हसन प्रोफेशनल गायकों की भीड़ से बिल्कुल अलग थे और उन्होंने कभी पैसे के लिए अपनी ग़ज़लों का सौदा नहीं किया हां अगर कोई उन्हें आदर से निमंत्रण देता था तो वे सहर्ष आग्रह स्वीकार कर लेते थे। तात्कालीन लूना(राजस्थान) जो अब पाकिस्तान में आता है वहां हसन साहब का जन्म हुआ था लेकिन भारत में ही उनके ज्यादा फैंस थे। पाकिस्तान की कई फिल्मों में उनकी आवाज़ सुनायी देती है लेकिन ग़ज़ल गायिकी उनका सबसे पसंदीदा शौक था। एक तरह से कहें तो वे ग़ज़लों में ही जीना जानते थे।

कॉपी करने के सख्त खिलाफ थे

उस्ताद यूं ही उस्ताद नहीं थे क्योंकि एक वाकया यहां जिक्र करना जरूरी है जबकि इस दौर में संगीत की कॉपी करना एक नया ट्रैंड है हसन साहब कॉपी करने के सख्त खिलाफ थे। उनका मानना था कि रचना मौलिक और सुर दिल से निकलना चाहिए और जब सुर दिल से निकलता है तभी यह ईश्वर के नज़दीक होता है। इसी कड़ी में उन्होंने एक ग़ज़ल में गायिकी के लिए जिन सुरों का प्रयोग किया था वो हारमोनियम की पटरियों में नहीं होते हैं…कहा जाता है कि सुर बनाने वालों ने –म- के दो प्रकार बताए एक कोमल और दूसरा तीव्र लेकिन हसन साहेब ने अपनी गायिकी के दौरान बताया कि म का एक और प्रकार होता है जो हारमोनियम की पटरियों में नहीं होते और इनका नाम उन्होंने आंदोलन बताया। वास्तव में उस्ताद यूं ही उस्ताद नहीं माने जाते थे। कहा जाता था कि मेंहदी हसन काफी पहले ये भी पसंद नहीं करते थे कि कोई उनकी गायी हुई ग़ज़लों को रिकार्ड करे लेकिन समय के साथ उनके प्रशंसकों ने उनकी गायिकी के रिकार्ड्स बनाए और आज इसी वज़ह से उनके कुछ बेहतरीन एलबम हमारे सामने है। किन बेहतरीन ग़ज़लों का जिक्र किया जाए…सभी एक से बढ़कर एक…लेकिन जो सबसे ज्यादा लोकप्रिय रहे उनकी कुछ पंक्तियों का ज़िक्र भी उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी। कतिल शिफई की ग़ज़ल ज़िंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं…मैं तो मरकर भी मेरी जान तुझे चाहूंगा ने कई रिकार्ड्स बनाए। ये ग़ज़ल इतना लोकप्रिय हुआ कि मुहम्मद रफी, अनुराधा पौंड़वाल, सोनू निगम जैसे नामचीन कलाकारों ने इसे कई बार रिकार्ड कराया। इसके अलावा, रफ्ता-रफ्ता वो मेरे हस्ती का सामां हो गए, गुलों ने रंग भरे, प्यार भरे दो शर्मीले नैन, शोला था जल बुझा हूं, हवाएं मुझे ना दो, अबके हम बिछड़े तो शायद ख्वाबों में मिलें, दिल तड़पता है एक जमाने से—आ भी जाओ किसी बहाने से, वो दिलनवाज़ है लेकिन नज़र सनाज़ नहीं, मुझे तुम नज़र से गिरा रहे हो, मुझे तुम कभी भी भुला ना सकोगे, दीवारों दर पे नक्श बनाने से क्या मिला—लिख-लिख के नाम मिटाने से क्या मिला जैसी कई ग़ज़लें हैं जिन्हें सुनकर आज भी तरो-ताज़गी आ जाती है। आज के प्रतिस्पर्द्धी दौर में जब इंसानों के पास ग़ज़लें सुनने का वक्त नहीं है तब इतने बड़े शहंशाह को सुनना अजीब सा सुकून देता है लेकिन जो ग़ज़लों को अपनी ज़िदगी का हिस्सा मानते हैं उनके लिए उस्ताद को सुनना रूमानियत का अहसास ही है। इतनी बड़ी संगीत की दुनिया में आज कई सुर आते हैं और चले जाते हैं लेकिन क्या वज़ह है कि आज भी हसन साहब की ग़ज़लें आम-ओ-ख़ास की जुबां पर है।

ग़ज़लों पर हारमोनियम और तबलों की छाप ही दिखती थी

हसन साहेब अपनी मौशुकी की बदौलत दिलों पर राज करते थे। उनकी ग़ज़लों पर हारमोनियम और तबलों की छाप ही दिखती थी। वैसे सारंगी-सितार और तानपुरे की मदद भी उन्होंने कई प्रस्तुति के दरमियान ली लेकिन आम तौर पर रियाज़ और प्रदर्शन के लिए हसन साहब काफी कम इंस्ट्रूमेंट का इस्तेमाल करते थे इसी वज़ह से उनकी आवाज़ का भारी पन सब पर भारी पड़ता रहा। राग-दरबारी, खमाज़, भैरवी, भीमपलासी, तिलक कामोद, यमन, भैरव, सोहनी, पूरिया, बसंत, तोड़ी, मियां की मल्हार, बागीश्वरी जैसे प्रसिद्ध रागों में उनकी आवाज़ का जादू सिर चढ़कर बोलता था। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी उस्ताद को दिल्ली बुलाकर उनकी गज़लें सुनना चाहते थे लेकिन अटल जी भी मेंहदी हसन के जाने के बाद रूख़सत हो गए और यह अंतहीन ख्वाब ही रह गया। इस महान शख्सियत ने आर्थिक तंगी की वज़ह से दुनिया को अलविदा कह दिया। कहते हैं जहां कला की पूजा होती है वहां, लक्ष्मी दूर होती है शायद यही वज़ह थी कि आज के प्रोफेशनल गायकों के लिए उस्ताद की ज़िंदगी रोल मॉडल नहीं बन सकी। हसन साहेब को मरहूम उस्ताद जगजीत सिंह साहेब ने भी आर्थिक मदद दी थी लेकिन इस मदद के बावजूद उनकी ज़िंदगी उनसे रूठ गयी। ऐसा लगता है कि हसन साहेब आज भी ज़िंदा हैं। उनके प्रशंसकों के लिए उनका जाना एक बड़ी क्षति थी क्योंकि दिलो-दिमाग पर मेंहदी हसन की आवाज़ ऐसी घर कर गयी थी जिन्हें भुला पाना नामुमकिन था। अज़ीमो शान शहंशाह और आवाज़ के जादूगर उस्ताद मेंहदी हसन साहेब को एक बार फिर सारी दुनिया याद कर रही है, क्योंकि आवाज़ मरती नहीं अंदाज़ भले ही बदल जाता हो। एक लाइन यहां सटीक बैठती है…अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख्वाबों में मिले…।

आनंद कौशल,
वरिष्ठ पत्रकार और मीडिया स्ट्रैटजिस्ट,
प्रधान संपादक. बिहार ब्रेकिंग