कोचिंग का क्रेडिट, स्कूल की गुमनामी: शिक्षकों के साथ यह अन्याय कब तक?
आज कोचिंग संस्थानों को छात्रों की सफलता का सारा श्रेय मिलता है, जबकि वे शिक्षक गुमनाम रह जाते हैं जिन्होंने वर्षों तक

नींव रखी। यह संपादकीय उसी विस्मृति की पीड़ा को उजागर करता है। स्कूल और कॉलेजों में पढ़ाने वाले शिक्षक सिर्फ परीक्षा नहीं, सोच, भाषा और संस्कार गढ़ते हैं। कोचिंग एक पड़ाव है, पर शिक्षकों की तपस्या पूरी यात्रा का आधार। शिक्षा में श्रेय का यह असंतुलन सामाजिक और नैतिक रूप से अन्यायपूर्ण है – और इसे सुधारने की सख्त ज़रूरत है।
डॉ सत्यवान सौरभ
आज जब भी कोई छात्र NEET, JEE, UPSC या अन्य प्रतियोगी परीक्षा में चयनित होता है, तो मीडिया उसकी सफलता को कोचिंग संस्थान की सफलता के रूप में प्रस्तुत करता है। बधाइयाँ, होर्डिंग्स, विज्ञापन, और सोशल मीडिया पोस्ट्स – सब पर एक ही नाम चमकता है: कोचिंग सेंटर। लेकिन इस पूरे शोरगुल में वह शिक्षक खो जाते हैं, जिन्होंने कभी उस छात्र को पहली बार पेंसिल पकड़ना सिखाया था, जिसने उसे अक्षरों से परिचय कराया था, जिसने उसकी गणना और तर्क की नींव रखी थी। यह वही शिक्षक हैं जो स्कूल और कॉलेजों में वर्षों तक संघर्षरत रहकर बिना किसी विशेष संसाधन के, बच्चों में सोचने की क्षमता और आत्मविश्वास जगाते हैं।
यह लेख इसी अदृश्य, उपेक्षित वर्ग की आवाज़ है।
शिक्षा कभी एक बाज़ार नहीं थी। वह एक संबंध था – गुरु और शिष्य का। लेकिन जब से शिक्षा के क्षेत्र में कोचिंग संस्थानों का वर्चस्व बढ़ा है, तब से यह संबंध एक सेवा और ग्राहक का रूप ले चुका है। छात्र एक उपभोक्ता बन गया है और शिक्षक – एक उत्पाद बेचने वाला। कोचिंग संस्थान अब एक ब्रांड है, जो सफलता बेचता है, और स्कूल का शिक्षक सिर्फ एक सरकारी कर्मचारी, जिसे ना प्रशंसा मिलती है, ना मंच।
शिक्षा में यह असंतुलन क्यों? क्या एक छात्र की सफलता का संपूर्ण श्रेय सिर्फ उस कोचिंग संस्थान को दिया जाना न्यायसंगत है जहाँ वह अंतिम एक या दो वर्षों में गया? और उस स्कूल या कॉलेज की भूमिका क्या शून्य हो जाती है जहाँ उस छात्र ने जीवन के 10-12 वर्ष बिताए?
हमें यह याद रखना होगा कि कोई भी छात्र एकाएक UPSC क्लियर नहीं करता। वह प्रक्रिया कहीं कक्षा-3 की हिंदी की कविता याद करने से शुरू होती है, जब शिक्षक उसकी उच्चारण की भूलें सुधारते हैं। वह गणित के पहले गुणा-भाग से शुरू होती है, जब शिक्षक उसकी उंगलियों की गिनती को गणना में बदलते हैं। ये शिक्षक किसी ब्रांड के बोर्ड तले नहीं पढ़ाते, इनकी कक्षाएँ बिना एयरकंडीशनर की होती हैं, और कभी-कभी बिना पंखे के भी। लेकिन इनके पसीने से ही भविष्य की नींव तैयार होती है।
जब कोई छात्र इंटरव्यू में पूछे जाने पर कहता है कि “मेरी सफलता मेरे कोचिंग संस्थान की देन है,” तो यह वाक्य सुनकर कहीं किसी गाँव के सरकारी स्कूल में पढ़ा रहा एक शिक्षक चुपचाप मुस्कुरा देता है। वह जानता है कि उसने कुछ तो सही किया होगा, तभी यह छात्र उस जगह तक पहुँच पाया है। लेकिन उस मुस्कान में पीड़ा छिपी होती है, उस चुप्पी में वह सवाल होते हैं जो कोई नहीं पूछता – “क्या मेरी कोई भूमिका नहीं थी?”
कोचिंग संस्थान सफलता का शॉर्टकट दे सकते हैं, लेकिन सोचने की आदत, भाषा की पकड़, सामाजिक चेतना – ये सब स्कूलों में ही पैदा होती है। विद्यालय सिर्फ परीक्षा की तैयारी नहीं कराते, वे व्यक्ति का निर्माण करते हैं।
बाज़ार की भाषा में कहें तो आज शिक्षा एक ‘ब्रांडेड सर्विस’ बन चुकी है। कोचिंग सेंटर सफलता के ग्राफ के साथ खुद को बेचते हैं, और सफल छात्रों को विज्ञापन की तरह इस्तेमाल करते हैं। यह शोषण का एक नया रूप है, जिसमें मेहनत किसी और की होती है और लाभ किसी और को मिलता है।
विज्ञापनों की भाषा देखिए – “हमारे यहाँ से 72 चयनित!”, “AIR-1 हमारे छात्र!”, “बिना कोचिंग के असंभव!” – इन दावों में किसी स्कूल का नाम नहीं होता। किसी हिंदी, गणित या विज्ञान शिक्षक की तस्वीर नहीं होती, जिन्होंने छात्रों को अपनी सीमित तन्ख्वाह, खस्ताहाल स्कूल और प्रशासनिक दबावों के बीच तैयार किया।
यहां एक और विडंबना है – जिस छात्र कोचिंग सेंटर में जाकर सफल हुआ, वह खुद एक स्कूल से आया था। उसने कभी कक्षा में बोर होकर या मस्ती करते हुए भी सीखा था। उसके व्यक्तित्व में स्कूल की प्रार्थना, शिक्षक का डांटना, लाइब्रेरी का सन्नाटा और प्रायोगिक कक्षाओं की गंध शामिल होती है। लेकिन सफलता के बाद वह स्कूल के बजाय कोचिंग की ब्रांडिंग करता है।
यह ट्रेंड केवल समाज की विस्मृति को नहीं दर्शाता, यह हमारी प्राथमिकताओं की गिरावट भी दिखाता है।
मूल शिक्षक केवल क्लासरूम तक सीमित कर दिए गए हैं। उनके नाम पर ना कोई स्कॉलरशिप होती है, ना कोई क्रेडिट सिस्टम। वे दिनभर बोर्ड परीक्षा की कॉपियाँ जांचते हैं, चुनाव ड्यूटी निभाते हैं, मिड-डे मील के अंडे गिनते हैं और फिर भी समय निकालकर छात्रों को समझाते हैं – “कृपया अपने नाम के आगे IAS लगाओ तो एक बार स्कूल ज़रूर आना!”
कुछ शिक्षक तो इतने सरल और समर्पित होते हैं कि वे अपने छात्रों की सफलता पर गर्व तो करते हैं, लेकिन उसके सोशल मीडिया पोस्ट में अपना नाम न देखकर भी चुप रहते हैं। वे अपनी भूमिका को ईश्वर के कार्य जैसा मानते हैं – बिना श्रेय की अपेक्षा के, केवल समाजनिर्माण की भावना से।
यह चुप्पी अब तोड़नी होगी।
हमें एक नया सामाजिक अभियान चलाने की आवश्यकता है, जहाँ हर चयनित छात्र अपने स्कूल और वहाँ के शिक्षकों का नाम खुले मंच पर ले। प्रशासन को ऐसे नियम बनाने चाहिए जहाँ छात्रों की सफलता के साथ-साथ विद्यालय और कॉलेज का भी नाम दर्ज किया जाए। मीडिया को भी अपनी रिपोर्टिंग में कोचिंग संस्थानों के साथ-साथ उस छात्र के मूल शैक्षिक संस्थान की जानकारी देनी चाहिए।
कोचिंग संस्थानों को भी नैतिक जिम्मेदारी लेनी चाहिए कि वे अपने प्रचार में उस छात्र की संपूर्ण शैक्षिक यात्रा को स्थान दें – केवल अंतिम दो वर्षों को नहीं।
यदि हम ऐसा नहीं करेंगे, तो एक दिन आएगा जब हमारे विद्यालय केवल नाममात्र के रह जाएँगे, और शिक्षा केवल एक महंगी सेवा बनकर रह जाएगी।
सच्चा शिक्षक वही होता है जो दीपक की तरह जलता है, ताकि सामने बैठा छात्र उजाले में देख सके। लेकिन दीपक को भी यदि निरंतर नजरअंदाज़ किया जाए, तो अंधकार स्थायी हो सकता है।
यह लेख उन्हीं शिक्षकों को समर्पित है –
जो ब्रांड नहीं हैं, लेकिन ब्रह्मा की भूमिका निभाते हैं।
जो कोचिंग सेंटर नहीं चलाते, लेकिन व्यक्तित्व गढ़ते हैं।
जिनके नाम आज नहीं गूंजते, लेकिन जिनका असर पीढ़ियों तक रहता है।
अब समय आ गया है कि हम शिक्षा की गहराई में उतरें और उसके असली स्थापत्यकारों को पहचानें।
डॉo सत्यवान सौरभ,
कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट,
(आलेख मे व्यक्त विचार लेखक के निजी है।)