सम्पादकीय

थोड़ी धूल रहने दो

ना झाड़ो इतना घर को तुम, कि सब निशान मिटा डालो,
कुछ धूल जमी रहने दो, यारो, यादों को फिर जगा डालो।

डाॅ.सत्यवान सौरभ

जो धूल जमी है कोनों में, उसने बीते कल को है संभाला,
साफ़ करो जो सब कुछ तुम, खो दोगे अपनी मधुशाला।

किसी शेल्फ़ में, किसी पन्ने में, कोई ख़त मुस्कुराता होगा,
किसी तस्वीर की धुंधलाहट में कोई चेहरा आता होगा।
घड़ी की सुइयाँ थम जाएँ, जब कोई याद बने मतवाला,
मत छेड़ो सब कुछ आज ही, रहने दो थोड़ी मधुशाला।

ना जाने किस बक्से में छिपकर कोई पत्ता पुराना गाए,
किसी हवा के झोंके में, बचपन की ख़ुशबू लहराए।
वो जो पल थे — चल दिए बहुत दूर, पर मन वही निराला,
उनको रहने दो थोड़ी देर, मन पर रहने दो मधुशाला।

साफ़-सुथरा घर अच्छा है, पर खाली-खाली लगता है,
थोड़ी धूल बहुत प्यारी है, जब स्मृतियों से जगता है।
ना झाड़ो इतना मन को भी, कि मिट जाए उसका हवाला,
थोड़ी धूल जहाँ रहती है — वहीं बसती है मधुशाला।।

डॉ. सत्यवान सौरभ

 

डॉo सत्यवान सौरभ,
कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट,

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